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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २४९ आहारोपधिभेदेन द्विधा संयोजनं मतम् । चुःसृष्टाः स्वान्तवाफ्काया निसर्गस्त्रिविधो मतः ।।८४३।। और उनके लक्षण इस मरणकडिकामें और तत्त्वार्थसूत्रकी टीका दोनोंमें समान हैं। संयोग तथा निसर्गके भेद इन ग्रंथों में समान पाये जाते हैं । संयोगके दो भेद हैं भक्तपान संयोग और उपकरण संयोग । तत्त्वार्थ सूत्र में आहार और पानीका मिलाना भक्तपान संयोग है और कमंडलु आदिका अन्यके उपकरणसे शोधन करना उपकरण संयोग ऐसा कहा है, भगवतो आराधनाकी टीका इसका अच्छा खलासा किया है कि आहार और पानीफा ऐसा संयोजन कि जिस संयोजनसे सम्मूर्छन जीवोंको उत्पत्ति हो । इसीप्रकार उपकरण संयोगमें उपकरणका परस्परमें मिलाना मात्र नहीं किन्तु इसतरह मिलाना कि जिससे जीव पीड़ा संभव है, जैसे शीत स्थान में रखे हुए कमंडलु आदिको धूप आदिसे तप्त हुई पोछीसे मार्जन करना, पुस्तकका मार्जन करना इत्यादि । इससे शीतस्थान और उष्णस्थानके सम्मूर्च्छन जीवों का व्याघात संभव है । निसर्गके तीन भेद हैं मनको दुष्ट प्रवृत्ति मनःनिसर्ग है, वचनको दुष्ट प्रवृत्ति वचननिसर्ग है और कायको दुष्ट प्रवृत्ति कायनिसर्ग है । तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थ सिद्धि आदि टोकामें निर्वर्तनाके जो भेद और लक्षण किये हैं एवं संयोगके भेद तथा लक्षण किये हैं उनमें यह स्पष्ट नहीं होता कि निर्वर्तना आदि मानवके अधिकरण किस प्रकार हैं। किन्तु इस ग्रंथ में स्पष्ट हो जाता है । आस्रवके आधार या अधिकरण दो हैं, जोवाधिकरण और अजोवाधिकरण, जोव या जीवके भाव एवं क्रियाके आधारसे जो आस्रव होता है वह जीवाधिकरण है और अजीवको क्रियाक आधारसे जो आस्रव हो वह अजोबाधिकरण है । जोषाधिकरणके संरंभ आदि भेद किये वे इसतरह हैं कि पुण्यास्रव और पापास्रब दोनोंके लिये हेतु हैं। किन्तु अजीवाधिकरणके निर्बतना आदि भेद बताये हैं उन भेदोंका वर्णन जो तत्त्वार्थ सूत्रकी टीकामें है उससे स्पष्ट नहीं होता है कि वे आस्रवके आधार किसप्रकार हैं। इस ग्रंथ में निर्वर्तनादिका वर्णन इसतरह है कि ये पापास्रवके आधार किसप्रकार होते हैं यह स्पष्ट हो जाता है । जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण दोनोंमें हिसारूप प्रवृत्ति बतायी है । संरंभ आदि प्रायः हिंसाके हेतुरूप हैं । निर्वर्तना आदि भी इसोरूप है। यह ठीक भी है क्योंकि पापोंमें प्रमुख पाप हिंसा है, अन्य पाप इसमें गर्भित हो सकते हैं। अजीवाधिकरण के निर्वर्तना और निक्षेपके भेद तथा लक्षण बताकर अब संयोग और निसर्गके भेद एवं लक्षण कहते हैं-पाहार और पानका परस्पर इसतरह मिलाना
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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