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मरणकण्डिका
नास्तीन्द्रियसुखं किंचिज्जीवहिसां विना यतः । निरपेक्षस्ततस्तस्मिन्न हिसां पाति पावनीम् ।।८४४॥ कषायकलषो यस्माज्जीवानां कुरुते वधम । निःकषायो यतिस्तस्मादहिंसारक्षणक्षमः ॥८४५।। शयनासननिक्षेप ग्रहचंक्रमणाविषु । सयंत्राप्यप्रमत्तस्य जीवत्राणं व्रतं यतेः ॥४६॥ विवेक नियताचारप्रासुकाहारसेविनि । मनोवाक्काय गुप्तेऽस्ति दयानतमखंडितम् ।।८४७।। प्रारंभेऽङ्गिवध जन्तुरप्रासुकनिषेवणे । प्रवर्ततेऽनुमोदे च शश्वज्ज्ञानरति बिना ॥८४८।।
जिससे जीव बाधा हो बह आहार पान संयोग है और पीछी कमंडल पुस्तक आदि उपधि या उपकरणोंका परस्पर में इसतरह मिलाना जिससे जीव बाधा हो वह उपधि संयोग है। निसर्गके तीन भेद हैं मनकी दुष्प्रवृत्ति, वचनकी दुष्प्रवृत्ति और कायकी दुष्प्रवृत्ति ।।८४३।। जिस कारण से इन्द्रिय सुख जोब हिंसाके बिना प्राप्त नहीं होता उस कारण से जो इन्द्रिय सुखकी अपेक्षा नहीं करता वह पवित्र अहिंसाका पालन करता है अर्थात् अहिंसाका पालन करने के लिये इन्द्रियके सुखोंका त्याग आवश्यक है। जिस कारणसे कषायसे कलुषित चित्तवाला व्यक्ति जीवोंका वध करता है उसकारणसे कषाय रहित मुनि अहिंसा के पालने में समर्थ माना जाता है ।।८४४।।८४५॥ शयन, आसन, किसी वस्तुका रखना, उठाना, भ्रमण इत्यादि सभी क्रियाओंमें अप्रमत्त मुनिका जीव रक्षावत है अर्थात इन सब क्रियाओंको करते समय प्रमादको छोड़कर जोवोंको रक्षा करना यही मुनिका व्रत (अहिंसा व्रत) है ।।८४६।। जो मुनि विवेक पूर्वक आचरण करता है प्रासुक आहारका सेवन करता है, मन, वचन, कायको गुप्त-वश में रखता है उस मुनिराज में व्याप्रत अर्थात् अहिंसावत अखंडित माना जाता है ।।८४७।।।
___ यह जीव सतत् ज्ञानमें रति अर्थात् लगन नहीं होनेके कारण प्राणिवधमें, आरंभ में, अप्रामुक आहारमें प्रवृत्ति करता है तथा इनमें प्रवृत्त हुए अन्य जीवोंकी अनुमोदना करता है अर्थात् ज्ञानाभ्यासमें यदि लगन-रुचि नहीं है तो व्यर्थ के आरंभ आदिमें मन जाता है वचनादिसे भी प्रवृत्ति करता है ।।४।।