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मरणकण्डिका
हस्सुकत्वदीनत्वरत्यरत्यादिसंयुतः त्वं भोगपरिभोगार्थ मा कार्षीजीवबाधनम् ॥८१२।। माक्षिकं मक्षिकाभिर्वा स्तोकस्तोकेन संचितं । मा नोनशो जपत्सारं संयमं चेन पूरयः ।।१३।। नृत्वं जाति: कुलं रूपमिद्रियं जोवितं बलम् । श्रयणं ग्रहणं वोधिः संसारे संति दुर्लभाः ॥८१४।।
हर्प, उत्सुकता, दोनपना, रति, अरति आदि खोटे भावोंसे युक्त होकर तुम भोग और उपभोगके लिये जोवोंको बाधा मत देना ।१८१२।।
__ जैसे मधु मक्खियों द्वारा थोड़ा थोड़ा करके मधुका संचय किया जाता है वैसे है यते ! तुम्हारे द्वारा थोड़ा थोड़ा करके ो संबन सचित किया गया है उस जगत में सारभूत संयमको यदि पूरित पूर्ण न कर सको तो नष्ट मत करना ।।१३।।
इस संसार में मनुष्य भव मिलमा दुर्लभ है उसमें उच्च जाति, कुल उससे दुर्लभ है। पून: रूप, इन्द्रियोंको पूर्णता, दीर्घायु, बल, धर्मश्रवण, धर्मग्रहण दुर्लभ है सबसे अधिक दुर्लभ बोधिका मिलना है ॥८१४।।
विशेषार्थ-यहाँपर मनुष्यभव, जाति कुल आदिकी उत्तरोत्तर दुर्लभताको बतलाया गया है । चारों गतियोंके जीवों मेसे मनुष्यगतिके जीवोंकी संख्या अल्प है। यह संसारी जीव सबसे अधिक तिर्यंचगतिमें जन्म लेता है। देव नारकीके अपेक्षा भी मनुष्य गति में बहुत कम बार जन्म लेनेका अवसर मिलता है । मनुष्यों में उच्चकुल और उच्चजातिवाले मनुत्र्य अल्पसंख्यक हैं यह प्रत्यक्षसे हो दिखाई देता है। अनेक मनुष्य होनांग अधिकांग अंधे मूक बहिरे भी हैं अत: इन्द्रियोंकी पूर्णता सबको प्राप्त नहीं है। बहुत से जीव माताके गर्भ में ही मर जाते हैं कोई महिना, वर्ष आदि अल्पकालही जोकर मर जाते हैं दीर्घायुका होना कठिन है । पुनश्च बलवान् शरोर होना सुलभ नहीं है । इन सबके होते हुए समोचीन धर्मको सुननेको इच्छा होना और उस धर्मका उपदेश देनेवाले मिलना दुर्लभ है। वर्तमान में करोड़ों अरबों मनुष्योंमें कितने ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें जिनधर्म सुनने को मिलता है ? सुनने पर उसे ग्रहण करना अतिदुर्लभ है क्योंकि प्राय: श्रोताओंको प्रवृत्ति होती है कि इस कानसे सुनना और उस कानसे निकाल देना । सुने हुए विषयके अनुसार आचरण अत्यंत कठिन है। सबसे अधिक