________________
अनुशिष्टि महाधिकार
यावज्जीवं विमुचस्व यते ! षड्जीवहिंसनम् । हरित मोवितैः ।।८०६॥
यथा न ते प्रियं दुःखं सर्वेषां देहिनां तथा । इति ज्ञात्वा सदारक्ष तान्स्वस्वमिय यत्नतः ||१०|| क्षुधा तृष्णाभिभूतोऽपि विधाय प्राणिपीडनम् । मा कार्षीरपकारं त्वं वपुर्वचनमानसः
॥६११॥
[ २४१
दोषोंका समुदाय अर्थात् राग मत्सर, अहंकार आदि जिसमें नहीं है ऐसे हृदय में धारण करो, वह वचन पापका दलन करता है और पुण्यको देता है । अर्थात् जिनेन्द्र कथित आगमके ज्ञानसे संसारका भय नष्ट होता है क्योंकि आगमाभ्यासी पुरुष सतत् मोक्ष पुरुषार्थ में जागरूक रहते हैं अतः पापका नाश एवं पुण्यका लाभ होता हो है । इसप्रकार ज्ञानाभ्यासकी प्रेरणा आचार्य ने दी है ||८०८ ||
इसतरह सातसो इक्कावन नंबर के सूत्ररूप लोक में कथित मिथ्यात्वका वमन, सम्यक्त्वकी भावना, भक्ति, नमस्कार और ज्ञानाभ्यास इन पांच विषयोंका विवेचन यहां तक हुआ ।
आगे सातसौ बावन श्लोक में निर्दिष्ट महाव्रत रक्षा, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय, तपमें उद्यम इन चारोंका कथन चलेगा। इनमें महाव्रतका बहुत विस्तृत वर्णन है । अहिंसा महाव्रत—
हे यते ! तुम यावज्जीव तक षटुकाय जीवोंकी [पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और स कायिक] हिंसाका मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करो ||८०६ ||
जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे सभी प्राणियों को नहीं है, ऐसा जानकर अपने समान ही उन सबकी यत्न से सदा रक्षा करो ||८१०॥
हे साधो ! तुम क्षुधा तृषासे पीड़ित होनेपर भी काय, वचन, मनसे प्राणियों को पीड़ा देकर अपना अपकार मत करना ।।६११॥