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________________ २४० मरणकण्डिका मृत्युकाले श्रुतस्कंधः समस्तो द्वादशांगकः । बलिनाशक्तचिसेन यतो ध्यातुं न शक्यते ॥८०६॥ एकत्रापि पदे यत्र संवेगं जिनभाषिते । संयतो भजते तन्न त्यजनीयं ततस्तदा ॥८०७॥ छंद प्रहरण कलिताजिनपतिवचनं भवभयमथनं शशिकरधवलं कृत बुधकमलं । धृतमिति हरये हतमलनिचये वितरति कुशलं विदलति कलिलम् ॥८०८।। ॥ इति ज्ञानम् ॥ लिया । सवेरा होते ही वह राजसभामें पहुंचाया गया। राजाने उसे शूलीकी आज्ञा दी। वह शूली पर चढ़ाया गया । इसी समय धनदत्त नामके एक सेठ दर्शन करनेको जिन मन्दिर जा रहे थे । दृढ़ सूर्यने उनके चेहरे और चालढालसे उन्हें दयाल समझकर उनसे कहा-सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान हैं, इसलिये आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहींसे थोड़ासा जल लाकर मुझे पिलादें तो आपका बड़ा उपकार हो। ___ परोपकारी धनदत्त स्वर्ग मोक्षका सुख देनेवाला पंच नमस्कार मंत्र उसे सिखाकर आप जल लेनेको चला मया । वह जल लेकर वापिस लोटा, इतने में दृढ़ सूर्य मर गया। पर वह मरा नमस्कार मंत्रका ध्यान करते हुए। उसे सेठके इस कहने पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि यह विद्या महाफलको देनेवाली है । नमस्कार मंत्र प्रभाव से वह सौधर्म-स्वर्गमें जाकर देव हुआ । सच है-पंच नमस्कार मंत्रके प्रभावसे मनुष्यको क्या प्राप्त नहीं होता? दृढ़सूर्य चोरकी कथा समाप्त । मरणकालमें समर्थ मनवाले बलवान् पुरुष द्वारा भी समस्त द्वादशांग आगमका स्मरण ध्यान करना शक्य नहीं होता । अतः जिनेन्द्र प्रतिपादित उक्त आगममें से जिसमें क्षपकको प्रसन्नता हो संवेगभाव जगे उस एक पदको उस मरण समयमें नहीं छोड़ना चाहिये ।।८०६।।८०७॥ जिनेन्द्र के वचन [आगम] संसारके भयका मथन करनेवाले हैं, चन्द्रमाको किरणोंके समान धवल हैं, बुद्धिमान रूप कमलको विकसित करने वाले हैं, ऐसे वचनको मल
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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