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________________ दिगम्बर है कर ल्यालय तार वनका सदसौर अनुशिष्टि महाधिकार [ ३५९ (१५) चूर्णदोष-सुगंधित चूर्ण आदिके उपाय बताकर आहार लेना । ये सभी दोष मुनिके आश्रित होते हैं इसलिये ये उत्पादन दोष कहलाते हैं । मुनि इन दोषोंसे अपनेको अलग रखते हैं । (१६) मूलदोष-अवशको वश करने आदिके प्रयोग बताकर आहार लेना। एषण संबंधो ११ दोष-- (१) शंकित-यह आहार अघःकर्मसे उत्पन्न हुआ है क्या ? अथवा यह भक्ष्य है या अभक्ष्य ? इत्यादि शंका करके आहार लेना। (२) अक्षित-धी तेल आदिके चिकने हाथसे या चिकने चम्मच दिसे दिया हुआ आहार लेना । (३) निक्षिप्त-सचित्त पृथ्वी, जल आदिसे संबंधित आहार लेना । (४) पिहित-प्रासुक या अप्रासुक ऐसे बड़े ढक्कन को हटा कर दिया हुआ आहार लेना। संव्यवहरण-जल्दीसे वस्त्र, पात्रादि खींच कर बिना सावधानोके आहार लेना। (६) दायक-माहारके अयोग्य मद्यपायो नपुसक पिशाचग्रस्त अथवा सूतक-पातक आदिसे सहित दातासे आहार लेना। (७) उन्मिश्र-अप्रासुक वस्तु संमिश्रित आहार लेना। अपरिणत-अग्न्यादिसे अपरिपक्व आहार पान आदि लेना । लिप्त पानी या गीले गेरू आदिसे लिप्त ऐसे हाथोंसे दिया हुआ आहार लेना। (१०) छोटित-हाथको अंजूलिसे बहुत नीचे गिराते हुये आहार लेना ये दस दोष मुनियों के भोजनसे संबंध रखते हैं। (१) संयोजनादोष-आहारादिक पदार्थोंका मिश्रण कर देना, ठंडे जल आदि में उष्णभात आदि मिला देना अन्य भी प्रकृति विरुद्ध वस्तुका मिश्रण करना, संयोजन दोष है।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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