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________________ ३६० ] मरण कण्डिका (२) अप्रमाण दोष - उदरके दो भाग रोटो आदिसे पूर्ण करना होता है एक भाग रस, दूध, पानी आदिसे भरना होता है और एक भाग खाली रखना होता है यह आहारका प्रमाण है । इसका अतिक्रमण करके आहार लेना अप्रमाण दोष है । (३) अंगार दोष - जिल्ह्वा इन्द्रियकी लंपटतासे भोजन ग्रहण करना | (४) धूम दोष - भोज्य वस्तुकी मनमें निंदा करते हुये आहार ग्रहण करना 1 इसप्रकारके उद्गमके १६ उत्पादन के १६+ एषणा के १०+ और संयोजना आदि ४=सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं । + इनसे अतिरिक्त और दोष हैं उन्हें बताते हैं आहार में नख, बाल, हड्डी, माँस, पीप, रक्त, चर्म, द्वीन्द्रिय श्रादि जीवोंका फलेवर माजाय तो आहारको छोड़ देते हैं तथा ऋण, कुड, बीज कंद, मूल प्रोर अछिन्न फल आजाय तो यथाशक्य परिहार या अंतराय करते हैं-आहारको छोड़ देते है । बत्तीस अन्तराय - (१) काक - आहारको जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि वीट कर देवे, तो काक नामका अंतराय है । ( २ ) अमेध्य - अपवित्र विष्ठा प्रादिसे पर लिप्त हो जावे । (३) छर्दि - वमन हो जाये । ( ४ ) रोधन - आहारको जाते समय कोई रोक देवें । (५) रक्तस्राव - अपने शरीरसे या अन्यके शरीरसे चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहता हुवा दीखे | अश्रुपात - दुःख से अपने या परके अश्रु गिरने लगे । ( ६ ) ( ७ ) जान्वध परामर्श -यदि मुनि जंघाके नीचे का भाग स्पर्श करले । (८) जानूपरिव्यक्तक्रम - यदि सुनि जघांके ऊपरका व्यक्तिक्रम कर लें अर्थात् जघांसे ऊंची सीढ़ी पर इतनी ऊंची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़े तो जानूव्यक्ति क्रम अंतराय है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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