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________________ पदयादि टिकार [ ५०५ प्रसिधाराविषे दोषमेकत्र कुरुतो भवे । प्रशनायाः पुनर्जन्तो रितं भवकोटिषु ॥१७५०॥ शरीरं मानसं दुःखं रश्यते यजगत्त्रये । तद्दवाति यतेः सर्व अशनाया विसंशयम् ॥१७५१॥ यते ! देहममत्वेन प्राप्तं दुःखमनारतम् । इदानीं सर्वथा साधो | तत्ततस्त्वं निराकुरु ॥१७५२॥ दुःखं जन्मसमं नास्ति न मृत्युसदृशं भयम् । जन्ममृत्युकरों छिठि शरीरममतां ततः ।।१७५३॥ परोऽयं विग्रहःसायो ! चेतनोऽयं यतः परः । ततस्त्वं विग्रहस्नेहं महाक्लेसकरं त्यज ।।१७५४।। -- ---- - -- तलवारको धार चाटनेसे और विष खानेसे एक भवमें दोष होता है-मृत्यु होती है किन्तु संन्यासकाल में अयोग्य आहारसे जीवको करोड़ों भवोंमें दुःख होता है ॥१७५०॥ सोन लोकमें जो भी शारीरिक और मानसिक दुःख दिखायो देता है वह सब यतिके अयोग्य भोजनसे मिलता है, इसमें संशय नहीं है अर्थात् हे क्षपक ! इस अनादि संसारमें अनंतबार जो शारीरिक मानसिक दुःख तुमको भोगना पड़ा उसका कारण अयोग्य भोजन है ऐसा तुम निश्चयसे जानो ।। १७५१।। हे मुने ! शरीरको ममतासे तुमने सतत् दुःखको प्राप्त किया है । हे साधो ! इससमय उस शरीर ममताको तुम सर्वथा त्याग दो ।।१७५२।। इस संसार में जन्मके समान कोई दुःख नहीं है और मरणके समान कोई भय नहीं है, इन जन्म मरणको करने वाली शरीरको ममता ही है अतः शरीर ममत्वको छेद डालो ।।१७५३।। हे साधो ! जिस कारणसे यह शरीर अन्य है भिन्न है और चेतन आत्मा अन्य है, उस कारणसे महाक्लेशकारी शरीर ममत्वको छोड़ दो सर्वथा उस ममत्वका त्याग करो ॥१७५४॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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