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________________ मरणकटिका . सहमानो मुने! हम्यगुप्तपरोहा । निःसंगस्त्वमसंक्लिष्टो देहमोहं तनकुरु ॥१७५५।। तृणाबिसंस्तरो योग्यश्चतुर्वा संघमीलनम् । निःफलं जायते सायो । मृत्यो संक्लिष्टचेतसः ॥१७५६॥ रत्नसंभतपात्रस्था वणिजः सागरे यथा । पत्तन निकषा साधो ! निमम्जंति प्रमावतः ॥१७५७।। तथा सिद्धिसमीपस्थाः शुद्धसंस्तरयायिनः । निपतंति भवावर्ते जीवाः संक्लेशयोगतः ॥१७५८।। . -.- हे मुने ! तुम उपसर्ग और परीषहोंको सहते हुए निःसंग होवो, संक्लेशको छोड़ो और देहकी ममताको कम करो। (संक्लेश भावसे रहित होनेसे एवं संग-परिग्रह रहित होने से शरीरका मोह कृश होता है अतः आचार्य निःसंग और संक्लेश रहित होनेका उपदेश दे रहे हैं) ॥१७५५।। आगे आचार्य कहते हैं कि संक्लेश परिणामका त्याग किये बिना अन्य प्रतादिक सफल नहीं होते हे साधो ! समाधिमरणके लिये तृणादि चार प्रकारका योग्य संस्तर ग्रहण करना, चार प्रकारके संघका मिलना उसके लिये निष्फल हो जाता है जिस साधुके परिणाम संक्लिष्ट होते हैं अर्थात् संक्लेश परिणामसे संघका मिलना आदि निमित्त कारण व्यर्थ हो जाते हैं क्योंकि संक्लेशसे समाधि बिगड़ जाती है। समाधिका अंतरंग कारण संक्लेश रहित भाव है । संघ आदि तो बहिरंग कारण हैं ।।१७५६।। हे साधो ! जिसप्रकार व्यापारोका रत्नोंसे भरा हुआ जहाज प्रमादके कारण नगरके निकट आया हुआ भी सागरमें डूब जाता है । उसीप्रकार शुद्धसंस्तरमें स्थित मोक्षनगरके निकट पहुंचे हुए जीव भी संक्लेश परिणामके योगसे संसार सागरमें डूब जाते हैं ।।१७५७ ॥ १७५८॥ भावार्थ-शरीर सल्लेखनाको निरतिचार करनेपर भो कषाय सल्लेखना जब तक नहीं होतो तब तक संसार समुद्रसे पार नहीं हो सकते, संस्तरमें आरूढ़ होना, संघ
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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