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________________ [ ५०५ सारणादि अधिकार सल्लेखनाथमं साधो ! चारित्रं च सुदुश्चरम् । मा स्म त्याक्षीजगत्सारमल्पसौख्याजघृक्षया ॥१७५६॥ पुरुषःकथितं धीरेमगि सद्भिनिषेवितम् । निरपेक्षाः भिता धन्याः संस्तरस्था निशेरते ॥१७६०॥ कलेवरमिदं त्याज्यमिति विज्ञाय निःस्पृहः । सहस्व कर्मजं दुःखं निवेदन इबाखिलम् ॥१७६१।। एवं प्रज्ञाप्यमानोऽसौ त्यक्तसंक्लेशवासनः । अन्यदुःखमिवात्मीयं दुःखं पश्यति सर्वथा ॥१७६२।। का सानिध्य होना तथा आहारका त्याग करना ये सब शरीर सल्लेखना रूप कार्य हैं, रागद्वेष संक्लेश नहीं होना कषाय सल्लेखना है । अतः आचार्य क्षपकको कषाय सल्लेखना करनेकी प्रेरणा दे रहे हैं । हे साधो ! जगत्में सारभूत ऐसा सल्लेखनाका श्रम तथा दुश्चर चारित्रको तुम अल्प-सुख की इच्छासे त्याग मत देना अर्थात शरोर सल्लेखनामें अनशन आदि तप करना, जलके बिना अन्य तीन प्रकारके आहारका त्याग इत्यादिसे जो श्रम तुमको हुआ है तथा तुम्हारा उज्ज्वल चारित्र है यह मोक्ष सुख को देनेवाला है, उसको आहार जन्य अल्प सुखके लिये छोड़ना नहीं ।। १७५६।। जो धीर वोर हैं परोषह उपसर्गको सहनेमें बीर हैं ऐसे पुरुषों द्वारा मुनिमार्ग के रत्नत्रयका कथन किया गया है और सत्पुरुषों द्वारा सेवन किया गया है उस रत्नत्रय स्वरूप मार्गका प्राश्रय पुण्यवान् हो लेते हैं तथा वह रत्नत्रय संस्तर पर स्थित होनेपर-संन्यास लेनेपर हो विशुद्ध होता-परिपूर्ण होता है ॥१७६०।। हे क्षपक ! यह शरीर त्यागने योग्य ही है ऐसा जानकर शरीरसे निःस्पृह हो असाताकर्मसे उत्पन्न हुए सर्व दुःखको सहन करो। ऐसा सहन करो कि मानो वेदना नहीं हो रही हो ॥१७६१।। इसप्रकार निर्यापक आचार्य द्वारा क्षपकको भलीप्रकार उपदेश दिया जानेपर वह क्षपक संक्लेश भावको छोड़ देता है और क्षुधा आदिसे होनेवाले अपने दुःखको अन्य किसीका दुःख है ऐसा सर्वथा देखता-मानता है ।।१७६२।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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