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मरणकण्डिका
धन्यस्य पार्थिवादीनामागमाविप्रयोगतः । आपकस्यापि दातथ्यो मानिनः कवचो हतः ।।१७६३।। इत्येष कवचोऽवाचि संक्षेपेण श्रुतोदितः । विशेषेणापि कर्तव्यो दुःखे सति युक्त्तरे ॥१७६४॥ स्तोष्यते क्षपकः सरेर्वच वयंगमैः । चंद्रस्येव करः शुद्धः शोतलेः कुमुदाकरः ।।१७६५॥
आचार्य क्षपकको कहते हैं कि हे क्षपक ! तुम धन्य हो देखो ! बड़े बड़े राजा महाराजा मंत्री आदि तुम्हारे दर्शनार्थ आ रहे हैं, सर्वसंघ तुम्हारी मान्यता करता है इत्यादि सम्मानक बचन द्वारा अवाको प्रसंसा करके उन्हें आराधनामें दृढ़ता देनी चाहिये ।।१७६३॥
भावार्थ-क्षपकको आचार्य प्रशंसा वाक्य द्वारा व्रतोंमें प्रत्याख्यान में कवचवत् दृढ़ बनाते हैं । अपनी प्रशंसा सुनकर एवं आचार्य द्वारा राजा आदिका आगमन देखकर क्षपक मनमें विचारता है कि मेरी समाधिकी हलताको देखनेके लिये वे राजादिक आये हैं, इनके आगे मेरे प्राण चले जाय तो भी कुछ परवाह नहीं, मैं तो सर्वथा धैर्य ही रखगा । मैं अपना मान नहीं नष्ट करूगा । दुःख आ पड़नेपर भी व्रत भग नहीं होने दूगा । इसप्रकार क्षपकके मनमें भाव उत्पन्न कराने चाहिये ।
इसप्रकार यहांपर आगममें जैसा कहा है वैसा कवच संक्षेपसे कहा । यदि कोई दुरुतर दुःख उत्पन्न हो जाय तो विशेष रूपसे भो कवच करना चाहिये ।।१७६४।।
विशेषार्थ--युद्ध में कवच पहनकर जानेवाले योद्धाको जसे बाणादिसे घाय नहीं होते हैं । वैसे प्रशंसनीय वचनों द्वारा वैराग्य बद्धक वचनों द्वारा शरीरको असारता आदिके वाक्यों द्वारा क्षपकके मन में दृढता लाना उसको मनमें दृढ़ता धीरताके भाव लाना, मनको कवचवत् मजबूत बनाना 'कवच' कहलाता है सल्लेखनाके चालीस अधिकारोंमें यह पैतीसवां कवच नामका अधिकार है । जिसको सल्लेखना पूर्ण होने में कुछ समय शेष है उस साधुके लिये सामान्य रूपसे कवच कहा है तथा कोई आसन्ननिकट मरण वाला है उसके विशेषरूपसे कवचका कथन करना चाहिये ।
। हृदयमें आह्लाद उत्पन्न करने वाले प्राचार्य वचनों द्वारा क्षपक स्तुत्य होता हैप्रशंसनीय होता है और उससे वह मनमें दृढ-मजबूत व्रताचरण में स्थिर होता है, उसके