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________________ सारणादि अधिकार [ ५.६ क्षणेन दोषोपचयापसारिणः समेत्य वाक्यानि तमोऽयहारिणः । जोऽपि सूरेः भपको विबुध्यते महांसि भानोरिव नीरजाकरः ॥१७६६॥ परीषहं प्रभवति संस्तरे स्थितो निति परमपराक्रम क्रमः । निराकुलः कवचधरस्तपोधनो रणांगणे रिपुमिव ककंशं भटः ।।१७६७॥ इति कवचः। इत्येवं क्षपकः सर्वान्सहमानः परीषहान् । सर्वत्र निःस्पृहोभूतः प्रयाति समचित्तताम् ॥१७६८।। मनके भाव शुद्ध होते हैं । इसप्रकार क्षपक प्रसन्न होता है, जैसे चन्द्रमाको शुद्ध शीतल किरणोंसे रात्रि विकासो कमलोंका सरोवर प्रसन्न होता है-विकसित होता है ।।१७६५।। क्षणभरमें दोषोंको दूर करनेवाले, मनके अंधकारको हटाने वाले आचार्यके वाक्योंको प्राप्त कर अल्प बुद्धि भी क्षपक अतिशय रूपसे बोधको प्राप्त करता है-अपने कर्तव्य-रत्नत्रयाराधनामें सावधान हो जाता है। जैसे दोषा-रात्रिको दूर करनेवाले अंधकारको नष्ट करनेवाले सूर्यके किरणोंको पाकर कमलोंसे व्याप्त सरोबर विबोधको प्राप्त होता है-खिलता है ।।१७६६।। आचार्यने जिसका कवच किया है अर्थात् परिणाम दृढ़ किये हैं ऐसा क्षपक रूपी योद्धा निराकुल तथा परम पराक्रमी होता हुआ संस्तरमें स्थित होकर परीषहरूपी सेनाको नष्ट करने के लिये समर्थ होता है । जैसे परम पराक्रमी कवचधारी सुभट रणांगण में स्थित होकर अत्यन्त कठोर शत्रुको मारने में समर्थ होता है ।।१७६७।। इसप्रकार सल्लेखनाके चालीस अधिकारों से पैतीसवां कवच नाम का अधिकार पूर्ण हुआ (३५) इसप्रकार मनकी दृढता धैर्यरूपी कवच को आचार्यके कृपा प्रसादसे जिसने पहन लिया है ऐसे क्षपकके लिये समाधिके साधनामें श्रेष्ठ सहायभूत जो समता है उसका वर्णन समता नामके इस छत्तोस. अधिकार में प्रारम्भ करते हैं आचार्य देव द्वारा इस प्रकार संबोधित क्षपक समस्त परोषहोंको सहता हुआ सर्व विषय कषाय परिग्रह शरीर संघ आदि में अत्यंत निःस्पृह हो समचित्तताको प्राप्त
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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