SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 550
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१० ] मरणकण्डिका समस्तद्रव्यपर्यायममत्वासंगजितः निःप्रेम रागमोहोऽस्ति सर्वत्र समदर्शनः ॥१७६६।। प्रियाप्रियपदार्थानां समागमवियोगयोः । विजहीहि स्वमोत्सुक्यं वीनत्वमति रति ॥१७७०।। मित्रे शत्रौ कुले संघे शिष्ये सामिके गुरौ । रागद्वषं पुरोगका विमुपात राधीयते ॥१७५१॥ कुर्याद्दिव्यादि भोगानां क्षपकः प्रार्थनां न तु । उक्ता विराधनामूलं विषयेषु स्पृहा यतः ॥१७७२।। शब्द रूपे रसे गंधे स्परों साधो ! शुभाशुभे । सर्वत्र समतामेहि तया मानापमानयोः ॥१७७३।। करता है ।।१७६८॥ यह क्षपक जीव पुद्गल आदि सर्व द्रव्य उन द्रव्योंकी स्वभाव विभाव व्यञ्जन पर्यायें तथा द्रव्य गुण पर्यायोंमें ममत्व तथा प्रासक्त भावसे रहित होता है, द्वेष राग तथा मोह रहित होता है, इसतरह वह क्षपक सर्वत्र ही समदर्शन-समता भाव वाला होता है ।।१७६६।। भो साधो ! तुम प्रिय पदार्थोके समागममें उत्सुकता और रतिको नहीं करना तथा अप्रिय पदार्थोके वियोग में दीनता और अरतिभावको सदा छोड़ देना ॥१७७०॥ _हे उत्कृष्ट बुद्धिधारक यते ! मित्र और शत्रुमें रागद्वेषको पहले किया था उसको छोड़ दो तथा अपने कुलमें, संघमें, साधर्मी मुनिजनोंमें अथवा गुरुजनमें भो राग किया या राम उत्पन्न हुआ था उसको छोड़ो ॥१७७१॥ अपि क्षपकराज ! मेरेको स्वर्गके दिध्य भोग मिल जांय इसप्रकार की प्रार्थना को तुम कभी भी नहीं करना क्योंकि विषयभोगोंकी इच्छा रत्नत्रयकी विराधनाका मूल है ऐसा शास्त्रोंमें कहा है ।। १७७२॥ हे साधो ! अब तुम शुभ तथा अशुभ शब्द, रूप रस गंध और स्पर्श में समताभाव धारण करो, मान हो चाहे अपमान, सर्वत्र ही समान भाव रखो ॥१७७३।। हे महामते ! अब किसी विषयमें विशेषता नहीं मानना अर्थात् यह बहुत उपकारी है अच्छा है तथा इससे मुझे कष्ट होता है इत्यादि किसी पदार्थके प्रति जो पृथक् पृथक
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy