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________________ [५११ सारणादि अधिकार समानो भव सर्वत्र निर्विशेषो महामते । रागढषोदये जंतोगत्तप्रार्थो विनश्यति ॥१७७४॥ गुरू यपि पीडास्ति प्रकृष्टा मारणान्ति की । तथापि भपको याति सर्वत्र समचित्तताम् ।।१७७५।। एवं भावित चारित्रो याबद्वीयं कलेवरे । तावत्प्रवर्तते साधुरुत्थाय शयनादिषु ॥१७७६।। क्षीरणशक्त यंदा चेष्टा स्वरूपा भवति सर्वथा । तवा वेहाहाणाय यतते नि:स्पृहाशयः ।।१७७७॥ उपधि संस्तरं शम्यां पानं व्यावृत्तिकारिणः । शरीरं मचते योगी सम्यक्त्वारूढमानसः ॥१७७८।। भाव होते हैं उन सबमें हो अब समान भाव होना चाहिये क्योंकि इसतरहके जीवके रागद्वेष रूप भायके उत्पन्न होनेपर उत्तमार्थ तो समाधिमरण है वह नष्ट होता है ॥१७७४।। यद्यपि मरणके समय होने वाली बड़ी भारी पीड़ा होती है तथापि क्षपक सर्वत्र समभावको प्राप्त होता है अर्थात् क्षपकको अंतसमय में मरण प्राप्त होनेतक दुःख होगा किन्तु दृढ़ता रूप कवच युक्त होनेसे वह मोह रहित होता है तथा गुरूपदेशसे भेदविज्ञान की प्रकृष्टताके कारण बह देहादि में समभावको प्राप्त होता है ।।१७७५।। इसतरह गुरुके प्रसादसे भलीप्रकार भाया है चारित्रको जिसने ऐसा वह क्षपक मुनि जब तक शरीर में शक्ति रहती है तब तक उठकर बैठना सोना आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है ।।१७७६।। और जब शक्ति सर्वथा क्षीण हो जाती है तब उक्त क्रियायें अल्प होकर बिलकुल समाप्त होती हैं तब नि.स्पृह भावयुक्त हुमा शरीरका त्याग करने में प्रयत्नशील होता है ॥१७७७।। सम्यक्त्व-दृढ़ श्रद्धामें लगा है मानस जिसका ऐसा यह क्षपक मुनि उपधि-पीछी कमंडलु आदि संस्तर शय्या, पान, वैयावृत्य करनेवाले मुनि तथा शरीरको छोड़ देता है-त्याग देता है ।।१७७८।। अब यह क्षीणकाय योगी काय योग अर्थात शरीरको क्रियायें हिलना आदि और वचनयोग अर्थात् बोलनेका
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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