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मरणकण्डिका निराकृत्य वचोयोगं काययोगं च सर्वथा । स विशुद्ध मनोयोगे स्थिरात्मा व्यवतिष्ठते ।।१७७६॥ समत्वमिति सर्वत्र प्रपद्यामलमानसः । स मैत्रीकरणोपेक्षामुदिताः प्रतिपद्यते ॥१०॥ जीवेष सेव्या सकलेषु मैत्री परानुकंपा करुणा पवित्रा। बुधैरुपेक्षा सुखदुःखसाभ्यं गुणानुरागो मुदितावगम्या ।।१७८१॥
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निराकरण करके विशुद्ध मनोयोग अर्थात् आत्मचिंतन या पंचपरमेष्ठी चिंतनमें स्थिर हो जाता है ।।१७७६।।
निर्मल मनवाला उक्त क्षपफ सर्वत्र समभावको प्राप्त करके अर्थात भले बुरे भावको छोड़कर मंत्री, प्रमोद, कारुण्य पौर मध्यस्थ भावनाओंको भाता है ॥१७००11
आगे मैत्री आदि भावना किस किस में होना चाहिये सो बताते हैं
सकल जीवोंमें मंत्री भाव करना चाहिये तथा दीन दुःखितोंमें पवित्र और उत्कृष्ट करुणा भाव करे । बुद्धिमानोंको सदा हो सुख दुःखमें या विपरीत आचरण वालोंमें साम्यभाव जगाना युक्त है, जो गुणवान हैं उनमें प्रमोद भावना करना चाहिये ।।१७८१॥
विशेषार्थ--अनंतकालसे मेरा आत्मा चतुर्गतिमें घटी यंत्रके समान परिभ्रमण कर रहा है इस संसारमें सभी प्राणियोंने मेरा उपकार किया है ऐसा भाव होना मैत्री भावना है अथवा विश्वके किसी भी प्राणीको कष्ट दुःख न हो ऐसा भाव होना मैत्री है । ये मोही प्राणीमण शारीरिक और मानसिक व्याधि आधिसे संयुक्त हैं, अहो ! ये अशुभका उपार्जन कर करके दुःखी हो रहे हैं, इनका दुःख कैसे दूर हो ? इसप्रकार भाव जाग्रत होना कारुण्य कहलाता है । यति गुरु साधर्मीजनोंके गुणोंका विचार कर उन में हर्ष मानना मुनिजनोंको प्रमोद भावना कहलाती है तथा सुख होबे चाहे दुःख दोनोंमें समता आना माध्यस्थ है अथवा विपरीत चेष्टा करनेवाले व्यक्तियों में या मिथ्यादृष्टियों में मध्यस्थता रखना मध्यस्थ भावना है ।