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सारणादि अधिकार
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दर्शनज्ञानचारित्र तपोवीर्यनिविष्टधीः प्रकृष्टां कुरुते चेष्टां मनोवाक्काय कर्मभिः ।। १७८२ ॥
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रागद्वेषको मात्सर्यमोदा येन त्यक्ता निजिताक्षेण सर्वे । ध्यानं ध्यातुं योग्यता तस्य साधोः सामग्रीतो याति कार्यप्रसिद्धि ।। १७८३ ॥
॥ इति समता ।।
अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यन्तप और वीर्य में लगी है बुद्धि जिसकी ऐसा वह क्षपक मुनि मन वचन और काव द्वारा सदा उत्कृष्ट चेष्टा करता है अर्थात् मनको जोवादि तत्त्वोंके श्रद्धानमें लगाता है, वचनको पचनमस्कार के उच्चारण में और कायको हाथ जोड़ना मस्तक हिलाकर धर्मश्रद्धाको प्रगट करना आदि क्रियामें तत्पर करता है । इसतरह अपने परिणामोंको उज्ज्वल करता है ।।१७८२।।
जिस जितेन्द्रिय साधुने सभी राग, द्वेष, कोच, मात्सर्य और मोदको छोड़ दिया है उस साधुके ध्यानको करनेकी योग्यता आती है तथा ध्यानको कारण सामग्री मिलनेपर ध्यानरूप कार्यकी सिद्धि होती है ।।१७८३ ।।
समता नामका छत्तीसवां अधिकार समाप्त |
विशेषार्थ --- अपने से भिन्न जीवाजीवादि पदार्थों में शब्द, रस आदि विषयों में प्रीति होना राग कहलाता है । जो अमनोज्ञ विषय है उनमें अरतिरूप भावद्वेष है । क्रोध प्रसिद्ध हो है । किसीका उत्कर्ष अकारण ही नहीं सुहाना मात्सर्य है । मोद हर्षको कहते हैं । इन रामदिका त्याग करने पर हो ध्यानको योग्यता आती है तथा पांच इन्द्रियोंके विषय स्पर्श रसादिको जीतना परमावश्यक है । इसप्रकार कषाय और इन्द्रिय को जीत लेनेपर मुनि ध्यान करने में समर्थ होता है । अन्यत्र ध्यानके हेतु पांच बताये हैं
आसन विजयी, निद्राविजयी, इन्द्रियविजयी, कषायविजयी महाव्रत आदिसे संपन्न होना ।