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________________ ५०४ ] मरकण्डिका सौरूपमाहारग्रहणे परं । निमेषमात्र के गद्धितो गिलति क्षिप्रं तथा न हि विना सुखम् ।।१७४६ ।। प्रशनं कांक्षतो नित्यं व्याकुलो भूतचेतसः । afraटकस्यैव गुद्धस्यास्ति कुतः सुखं ॥। १७४७॥ को नामाल्पसुखस्यार्थे वच्यते सुखतो बहोः । संक्लेशः क्रियते येन मृतिकालेऽपि दुधिया ।। १७४८ ।। मधुलिप्तामा विशासन लिक्षिति । बुभुक्षते विषं घोरं संन्यस्तो योऽशनायति ।।१७४६ ।। शीघ्रता से दौड़ता है, स्वाद लेने की शक्ति केवल जिह्वाग्र में है, उसी स्थान पर स्वाद जाना जाता है, अतः भोजन करते हुए पुरुषको जिह्वा पर पहुंचने के पहले और गले में जानेके बाद भोज्य पदार्थका स्वाद नहीं आता। इसप्रकार आहारका सुखानुभव अत्यंत अन्य है ।। १७४५ ।। आहार ग्रहण में सुख निमेष काल प्रमाण है, आहारको गृद्धि - अभिलाषासे जल्दी जल्दी निगलता है । अभिलाषा के बिना इन्द्रिय सुख नहीं होता ।। १७४६ ।। भावार्थ - आहार के रसास्वादका काल आंखको टिमकार जितना है । यह जीव अभिलाषा वश शीघ्रतासे भोजनको निगल जाता है अतः अधिक समय तक भोजन जिह्वा पर रुकता नहीं और जिह्वाके अग्रभागसे आगे आहार गया कि स्वाद आना समाप्त होता है इसप्रकार आहारका सुख ना कुछ बराबर है । आहारकी नित्य कांक्षा करता हुआ यह मानव व्याकुल चित्त रहता है और व्याकुल चित्तवाले सुख कहांसे होगा ? जैसे चिरकालसे अन्नकी अभिलाषा करनेवाले दरिद्री नौकरको सुख नहीं होता ।। १७४७ ।। कौन ऐसा पुरुष है जो अल्प सुखके लिये बहुत सुखसे वंचित रहता है ? हे क्षपक ! तुम अल्प आहार के लिये इस समाधिमरणके अवसर पर भी दुर्बुद्धिसे संक्लेश कर रहे हो । यदि तुम आहारके अल्प सुखमें आसक्त होबोगे तो स्वर्ग और अपवर्ग के महान सुख से वंचित रह जावोगे || १७४८ || जो क्षपक संन्यासकालमें अयोग्य आहार की इच्छा करता है वह वैसा पुरुष है जो भूख लगने से घोर विषको खाना चाहता है तथा शहद से लिपटी तलवारको पैनी धार चाटना चाहता है ।। १७४६ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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