SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सारणादि अधिकार भोज्यं कंठगतप्राणैर्भुक्त्वा प्रार्थनयाहृतं । किमिदानों पुनस्तृप्ति सुबुद्ध े ! स्वं गमिष्यसि ? ।।१७४१।। न तृप्तिर्यस्य संपना पीते जलनिधेजले । अवश्यायक द्वित्रैः पीतः किमु स तृप्यति ॥ १७४२।। भुक्तपूर्वे यते ! कोऽस्मिन्नाहारे तव विस्मयः । पूर्वे युज्यते कर्तुं मभिलाषो हि वस्तुनि ।। १७४३ ॥ आपात सुखदे भोज्ये न सुखं बहु विद्यते । बुद्धितो जायते भूरि दुःखमेवाभिलाध्यतः ।। १७४४ ।। प्रतिक्रामति वाजीव जिह्वामूलं स वेगतः । तत्रैव बुध्यते स्वादं भुजातो न पुनः परे ।। १७४५ ।। | ५० ३ तृप्ति नहीं हुई तो अब गोचरीसे प्राप्त हुए किंचित् भोज्यको कंठगत प्राण द्वारा खाकर क्या तृप्तिको प्राप्त करोगे ? नहीं करोगे || १७४१ ।। जिसकी समुद्र जलको पी डालने पर भी तृप्ति नहीं हुई उसकी ओसको दो तीन बिंदुकणों को पीने से क्या तृप्ति होती है ? नहीं होती ।। १७४२ ॥ हे यते ! पूर्व में भोगे हुए इस आहारमें तुम्हें क्या इच्छा है विस्मय है ? यह तो सब प्राप्त हो चुका है । संसार में अपूर्व वस्तुमें अभिलाषा हुआ करती है यह आहार अपूर्व होता- पहले कभी प्राप्त नहीं किया होता तो उसमें अभिलाषा करना युक्त था ।। १७४३।। केवल तत्कालमें सुखदायक इस भोज्य वस्तुमें कोई विशेष सुख नहीं मिलता, उलटे अभिलाषा करनेवाले पुरुषके जो गृद्धिके भाव हैं उनसे तो बड़ा भारी दुःख होता है ।। १७४४ ।। भावार्थ-जब जिह्वा पर आहार आता है तभी सुख होता है वह सुख भी प्रति अल्प हैं, अभिलाषासे आहार करने में सुखकी अपेक्षा दुःख ही ज्यादा है अथवा आहारको प्राप्ति करनेके लिये अधिक कष्ट करने पड़ते हैं अतः आहारमें सुख कम है और दुःख अधिक है । भोजन करते समय आहार अति वेगसे जिल्लाका उल्लंघन करता है जैसे अश्व
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy