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मरणकण्डिका
सदैव मुपयुक्तन निद्रां निर्जयता त्वया । न ध्यानेन सिना स्थेयं पवित्रण कदाचन ॥१५१६।। न वोषाननपाकृरय स्वस्तु जन्मनि युज्यते । अनर्थ कारिणो रौद्रान्पन्नगानिव मंदिरे ॥१५२०।।
---- --... ... - - -.. -- - आचार्य ने तत्काल ही किस विषयमें प्रीति हो किस विषय में भय हो इत्यादिका खुलासा किया है । रत्नत्रयको आराधनामें प्रीति करना क्योंकि यह आराधना संकटोंका नाश करती है, अभ्युदय और निःश्रेयस सुखोंको साधिका एकमात्र यही आराधना है अहो ! मैं आज ऐसो अपूर्व आराधना करने में उद्यमशील हूं। आज मैं धन्य हुआ। पुण्य स्वरूप हुआ। इस प्रकार रत्नत्रयमें स्नेह प्रेम या प्रीति भावना जाग्रत होनेसे निद्रा भाग जाती है, लोकमें भी देखते हैं कि जब कोई अपना प्रिय कार्य विवाह आदि उपस्थित होता है तब निद्रा भाग जाती है।
पंच परावर्तन स्वरूप संसारमें मैंने अनादिकालसे महाभयानक कष्ट भोगे हैं, मिथ्यात्व अविरति आदिसे कुगति में मेरे स्वयंके अपराधसे जन्म धारण किया है ! बड़ा कष्ट है ! मैं अब ऐसे कार्यका पश्चात्ताप करता है । इस प्रकार अपने पूर्वमें किये गये पापोंका शोक करना आगे ऐसे पाप नहीं करने का दृढ़ संकल्प करते रहनेसे निद्रा नहीं प्राती है । शारीरिक, मानसिक, आगंतुक और स्वाभाविक ऐसे चार प्रकारके दुःख इस संसारमें सदा ही मुझे प्राप्त होते रहे हैं, मुझे इन दुःखोंके कारण जो अशुभ चेष्टायें हैं उनसे भयभीत रहना चाहिये, दूर रहना चाहिये । इसतरह चितवन करनेसे निद्रा नहीं आती। व्यवहार में देखा जाता है कि इष्ट व्यक्तिके वियोग होनेपर शोक होता है और शोकाकुल व्यक्ति नोंद नहीं ले पाता तथा घरमें सदिका भय हो तो भी नोंद नहीं पाती। इसोप्रकार ससारके कुगतिके दुःखका मनमें भय हो एवं अपने पापाचारके प्रति पश्चात्ताप शोक होवे तो निद्रा नहीं आवेगी । जाग्रत अवस्था में आत्म भावना व्रताचरण आदि सहज संपन्न होते हैं।
हे क्षपक ! तुम सदैव निद्राको जीतने में उद्यमी होत्रो । शुभ ध्यानके बिना तुम कभी भी नहीं रहना । अर्थात् अशुभ ध्यान में स्थित नहीं होकर शुभध्यान में लीन रहना ।।१५१६॥