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________________ | ४३६ अनुशिष्टि महाधिकार निद्रां जय नरं निद्रा विवधाति विचेतनम् । सुप्तः प्रवर्तते योगो दोषेषु सकलेष्वपि ॥१५१५।। यदा प्रबाघते निता स्वाध्यायं स्वं तदाश्रय । अर्थानणीयसो ध्यायन्कुरु संगनिर्विवौ ॥१५१६॥ निद्रा प्रीतौ भये शोके यतः पुसो न जायते । निर्जयाय ततस्तस्यास्त्वमिदं त्रितयं भज ॥१५१७॥ ज्ञानाचाराधने प्रीति भयं संसारदुःखतः। पापे पूर्वाजिते शोक निद्रां जेतु सवा कुरु ।।१५१८।। इसप्रकार यहांतक निर्यापक आचार्य देवने इन्द्रिय विजयको और कषाय विजयको करनेका उपदेश क्षपक के लिये दिया अब आगे निद्रापर विजय प्राप्त करने का उपदेश देते हैं हे क्षपकराज ! तुम निद्राको जोलो, क्योंकि निद्रा मनुष्यको अचेतनसा बना देती है, निद्रित साधु सकल दोषोंमें प्रवृत्ति करता है ॥१५१५॥ भो साधो ! जब तुम्हें निद्रा बाधा पहुंचाती है तब तुम स्वाध्यायका आश्रय लेओ । आगमके सूक्ष्म सूक्ष्म अर्थों को ध्यान करते हुए संवेग निर्वेदको करो या संवेगिनी तथा निर्वेदिनी कथाओंको सुनो-पढ़ो ॥१५१६।। जिसकारण पुरुषको प्रीति होनेपर भय तथा शोकके होनेपर निद्रा नहीं आती उस कारण, निद्राको जीतने के लिये तुम उन तीन कारणोंका-प्रीति, भय और शोकका सेवन करो ।।१५१७॥ आगे प्रीति आदिका किसप्रकार सेवन करे ! ऐसा प्रश्न होनेपर उत्तर देते हैं ज्ञानदर्शन आदिकी आराधना करने में हे क्षपक ! तुम प्रोति करना, संसार दुःखसे भय करना तथा पूर्व में उपाजित जो पाप हैं उसमें शोक करना, इसप्रकार निद्राको जीतने के लिये सदा ही इनमें उद्यम करना ।।१५१८।। विशेषार्थ-प्रोति, भय और शोक ये तीनों ही मोहकी पर्यायें हैं अतः साधुको इनका सेवन किसप्रकार उपयुक्त होगा ? ऐसा प्रश्न स्वाभाविक हो उठता है अतः
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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