SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३८ । मरणकण्डिका संसारेऽटादघमानेन प्राप्ताः सर्वे सहस्रशः । विस्मयो लब्धमुक्तषु कस्तेषु मम सांप्रतम् ॥१५१२॥ छंद-इन्द्रबचालोकद्वये दुःख फलानि वत्ते गार्धक्यतोयेन विद्धितोऽयम् । संतोषशस्त्रेणनिकर्तनीयः स लोभवक्षो बहुलः क्षणेन ॥१५१३॥ छंद-वंशस्य - कषायचौरानतिदुःखकारिणः पवित्र चारित्रधनापहारिणः । शृणाति यश्चारित्रमार्गणे: करस्थितास्तस्य मनीषिताः श्रियः॥१५१४॥ ॥ इति निमः । - - --- -- भावार्थ-धन जब पुण्यका अनुकरण करता है अर्थात् पुण्यके उदयमें ही प्राप्त होता है तब धनार्जनके लिये लोभ करना हिंसादिमें प्रवृत्ति करके अन्याय करके धन संचय इत्यादि बातें व्यर्थ हैं । धन प्राप्ति में कारण लोभ या कृपणता नहीं है किन्तु पुण्य ही कारण है ऐसा निश्चित समझना चाहिये ।। संसारमें अनंतबार परिभ्रमण करते हुए मैंने सब प्रकार बैभव संपत्ति धनादि को हजारों बार प्राप्त कर लिया है, उस प्राप्त करके छोड़े गये धन वैभव में मेरेको इस समय आश्चर्य कोनसा है ? अर्थात् धनादिक तो मुझसे चिर परिचित हैं कोई नवीन नहीं हैं इसलिये उसमें मेरे लिये कौनसा विस्मय है ? कुछ भो विस्मय नहीं है ॥१५१२।। जो दोनों लोकोंमें दुःखरूपी फलोंको देता है, गद्धता-रूपी जलसे सींचा गया है-बढ़ाया गया है ऐसा यह बड़ा भारो लोभरूपी वृक्ष संतोषरूपी शस्त्रसे क्षणमात्र में काट देना चाहिये ।।१५१३।। पवित्र चारित्र रूपो धनको लूटने वाले कषायरूपी अति दुःखदायी इन चोरों को जो सुदर आचरण रूपो बाणोंसे नष्ट करता है उस महात्मा पुरुषके मनोवांछित संपत्ति हाथमें स्थित हो चुकी है ऐसा समझना चाहिये ।।१५१४।। लोभ विजयका कथन समाप्त ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy