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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ४३७ वंभेऽर्थः क्रियमाणेऽपि विपुण्यस्य न जायते । प्रायाति स्वयमेवासो सुकृते विहिते सति ॥१५०६॥
छंद -- वितरति विपुला निकृतिधरित्री बहुविधमसुखं दुरितसवित्री । इयमिति निहता विपुलमनस्के ऋजुगुणपविना विमलयशस्कः ।।१५१०॥
___। इति माया नियः ।। संपद्यते सुपुण्यस्य स्वयमेत्यान्यतो धनम् । हस्तप्राप्तमपि क्षिप्रं विपुण्यस्य पलायते ॥१५११॥
--... भावार्थ-भाग्यवान का दोष लोगोंके प्रत्यक्षमें आनेपर भी लोग उसे दोष नहीं मानते और भाग्यहीनका दोष गुप्त हो छिपाया हो लोगोंके समक्ष नहीं हो तो भी उस दोषसे जनता उसको तिरस्कृत करती है । अतः आचार्य महाराज साधु समुदाय एवं विशेष करके क्षपकको समझा रहे हैं कि दोषको छिपानेरूप मायाचार करना व्यर्थ है । पुण्योदयमें दोषको छिपानो या न छिपाओ लोग उसकी निंदा-ग्लानि नहीं करेंगे और पापोदय में दोषको ग्लानि निंदा अवश्य होगी। इसलिय "मेरे मान्यताका नाश होगा" इस भावसे दोषको मत छिपाना और माया, छल, कपट मत करना ।
बहुतसा कपट करनेपर भी भाग्यहीन व्यक्तिके धन नहीं होता है और पुण्य करनेपर वह घन स्वयं अपने आप ही अवश्य आता है । अतः कपट करके धन कमानेकी इच्छा करना व्यर्थ है ।। १५०६ ।।
पापको जन्म-उत्पन्न करने में माताके समान यह मायारूप विशाल धरित्री जीवोंको बहुत प्रकारके दुःखको देती है, इसप्रकार जानकर इस मायाको विमल यशवाले बुद्धिमान पुरुषों द्वारा ऋजुगुण-प्रार्जव धर्मरूपो वसे नष्ट किया जाता है ।।१५१०।।
मायादोषके बिजयका वर्णन समाप्त । अब लोभको जीतनेका उपाय बताते हैं
पुण्यवान् पुरुषके अन्य स्थानसे धन स्वयं आकर प्राप्त होता है और पुण्यरहित पुरुषके हाथमें आया हुआ भी धन शीघ्र नष्ट होता है ।।१५११॥