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मरणाकण्डिका दोषो निगुह्यमानोऽपि स्पष्टतां याति कालतः । निक्षिप्तं हि जलेषों न चिरं व्यवतिष्ठते ।।१५०६॥ प्रकटोऽपि जनर्दोषः सभागस्यस्य न गृह्यते । समलं मलिनं केन गृह्यते सारसं जलम् ॥१५०७॥ नीचेन छाधमानोऽपि स्पष्टतामेति निर्मलः । राहुणा पिहितश्चद्रो भूयः क न प्रकाशते ॥१५०८।।
. . . . ---- - से सैकड़ों खंड कर डालता है अर्थात् साधुओंको मान कषायरूपी पर्वतका मार्दव भावना द्वारा नाश करना चाहिये ।।१५०५।।
मानकषाय विजयका कथन समाप्त । माया कषायपर विजय प्राप्त करनेका उपाय पांच कारिका द्वारा बतलाते हैं
मायाके कारण यह जीव अपने दोषको छिपाता है किन्तु दोषको खूब अच्छो तरहसे छिपाने पर भी वह समय पर प्रगट अवश्य होता है । जल में डाला गया मल अधिक समय तक नीचे नहीं ठहरता ऊपर ही आजाता है । वंसे दोष प्रगट हो होता है, छिपता नहीं ॥१५०६॥
दोषका प्रगट होना और नहीं होना पाप पुण्यके आधीन है तथा दोष प्रगट होने पर भी उस दोषीको लोग हीन नहीं मानते जिसके पुण्य का उदय है ऐसा कहते हैं
भाग्यवान् का दोष प्रगट हो तो भो लोगों द्वारा वह ग्रहण नहीं किया जाता । ठीक ही है । तालाबका मैला पानो “यह मलिन है" इसप्रकार लोगों द्वारा नहीं ग्रहण किया जाता ॥१५०७१।
भाग्यहीनके दोष अवश्य प्रगट होते हैं ऐसा कहते हैं
कोई भाग्यहीन पुरुष है उसके द्वारा दोष को छिपा देनेपर भी वह प्रकट होता है, जैसे राहु द्वारा चन्द्रमाको ग्रसित किया जाना यह क्या प्रगट नहीं होता? होता ही है ।।१५०८॥