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अनुशिष्टि महाधिकार नोचत्वे मम किं दुःखमुच्चत्वे कोऽत्र विस्मयः । नीचस्वोच्चत्वयोर्नास्ति नित्यत्वं हि कदाचन ॥१५०२॥ परेष विद्यमानेष कि दुःखमाधिकेष मे। योनिहोनेज्वहंकारः संसारे परिवर्तिनि ॥१५०३॥ स मानो कुरुते दोषमयमानकर न यः। न कुर्वाणः पुननिमपमान विवर्तकम् ॥१५०४।।
छ-विलंबितद्वितयलोकभयंकरमत्तमो विविधःखशिलाततवर्गमम । प्रबलमार्दववविघाततो नयति माननगं शतखंडनम् ॥१५०५॥
॥ इति माननियः ।।
मानकषाय पर विजय प्राप्त करने के लिये उसके प्रतिपक्ष रूप मार्दव भावका वर्णन करते हैं
यदि किसीने मेरा आदर नहीं किया उच्च आसन आदि नहीं दिया तो उससे मुझे क्या दूःख है ? तथा कदाचित् उच्चपद पर किसीने आरूढ़ किया अथवा भाग्यसे मुझे उच्चपना मिला तो उसमें मुझे क्या आश्चर्य या सुख है ? कुछ भी दुःख और सुख नहीं है क्योंकि नोचत्व और उच्चत्व कभी भी नित्य नहीं रहता। मैंने तो दोनोंको अनंतबार प्राप्त किया है । अतः इसमें मुझे हर्ष विषाद नहीं है ।। १५०२।।
कुल, रूप, संपत्ति इत्यादि विषयों में मेरे से अधिक श्रेष्ठ लोग जगत में विद्यमान हैं, अत: इसमें मेरा अभिमान वृथा है । मैंने इस परिवर्तन शील संसारमें होन योनियों में जन्म लिया है इसलिये भी वर्तमानके इस उच्च कुलादिमें क्या अहंकार करना ? नहीं करना चाहिये ।।१५०३॥ मानी तो दह पुरुष है जो अपमानके कारणभूत दोषको नहीं करता । जो अपमानको बढ़ाने वाले मानकषाय को करता है वह वास्तविक मानी नहीं है अर्थात् गुणयुक्त होना यही अलौकिक मान है । इसतरह मान सन्मानके विषय में समझकर कभी भी मानकषाय नहीं करना चाहिये ॥१५०४।।
उत्तम साधु जो इस लोक और परलोक में भयंकर है, दुःख रूपी विषमपाषाण शिलाओं के समूहसे दुर्गम है ऐसे मानरूपी पर्वतके प्रबल मार्दव भावरूपो वनके आघात