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मरणकण्डिका
परदुःखनियोत्पन्नमुदीर्ण कल्मषं मम । ऋणमोक्षोऽधुना प्राप्तो विज्ञायेति विषह्यते ॥१४६६।। अनुभुक्त स्वयं यावत्काले न्यायेन तत्समम् । अधमर्णस्य कि दु:खमुत्तमर्णाय यच्छतः ।।१५००॥
छंद-वंशस्थनिषेवितः कोपरिपुर्यतोऽङ्गिनां वदाति दुःखान्युभयत्र जन्मनि । निकर्तनीयः शमखड्गधारया तपोवियोधैः स ततोऽन्यदुर्जयः ।।१५०१॥
॥ इति क्रोधनिर्जयः॥
भभक उठती है, कठोर वचन इसके स्फुलिंगे हैं हिंसा ज्वालासे संयुक्त यह कोपाग्नि मेरे । धर्मरूपी उद्यानको भस्मसात् कर देगी । अत: मुझे बिलकुल ही क्रोध नहीं करना है। ऐसा विचार करके साधु सदा क्षमाभाव करते हैं ।
__मैंने पूर्व भव में अन्यको दु:ख दिया था उस पाप-क्रियासे जो पापोपार्जन हुमा था उसका फल उदयमें आया है, अच्छा ही है अब मैं ऋण मुक्त कर्ज से रहित हो जाऊंगा। इसप्रकार कोई दुष्ट मारने लग जाय तो विचार करना चाहिये ।।१४६६।।
कोई धनहीन पुरुष साहूकारसे द्रव्य लाकर उसका उपभोग करता है जितने कालके लिये लाया था उतने कालके बाद लौटाना न्याय हो है, अब जब कर्ज लौटाने का समय आचुका है तो उस द्रव्यको साहूकार के लिये देते हुए कर्जदारको क्या दुःख होगा ? यदि वह न्यायी है तो कभी भी दुःख नहीं होगा। ठीक इसोप्रकार मैंने पापाचारसे अशुभ कर्मका संचय किया है उसका उदय अब आ चुका है । इस मनुष्यको मैंने अवश्य हो पूर्व जन्म में दुःख दिया था अब मुझे यह दुःख दे रहा है इसे मैं शांतभावसे सहन करू तो ऋण मुक्त हो जाऊंगा | इत्यादि विचारसे मुनिराज उत्तम क्षमा धारणकर क्रोषपर विजय प्राप्त करते हैं ।।१५००।।
क्रोधरूपी शत्रुका सेवन करने से वह जीवोंको इस जन्म में और परजन्ममें दुःखोंको देता है अत: तपोधन साधुओंके द्वारा शमभावरूपी तलवारसे उस को काट देना चाहिये । कैसा है कोध शत्रु साधुको छोड़कर अन्य किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है ।।१५०१॥
क्रोध विजयका कथन पूर्ण हुआ ।