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अनुणिष्टि महाधिकार
सत्येऽपि सर्वतो दोषे सहनीयं मनीषिणा ।
विद्यते मम दोषोऽयं न मिथ्यानेन जल्पितम् ।। १४६६ ।।
शप्तोऽस्मिन हतोऽनेन निहतोऽस्मि न मारितः । मरणेऽपि न मे धर्मो नश्यतोति विषह्यते ।। १४६७।।
क्रोधो नाशयते धर्म विभावसुरिवेन्धनम् । पापं च कुरुते घोरमिति मत्वा विषह्यते ॥। १४६८ ।।
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इसमें मेरी कुछ हानि नहीं है, यह बिचारा व्यर्थ पाप बध कैसे कर रहा है ? अहो ! यह तो दयाका पात्र है | इस प्रकार विचार कर गालीके बचन सहन किये जाते हैं ।। १४६५ ।।
यदि कोई व्यक्ति सत्य दोषको कहता है तो साधुको उसे भी सर्वथा सहन करना चाहिये । उस समय विचार करे कि जो यह कह रहा है वह दोष मुझमें विद्यमान है, यह मिथ्या झूठ नहीं कहता । देखो ! जगत् में प्रायः लोग झूठे दोष लगाते हैं किन्तु यह तो सत्य कहता है, मैं तत्वका जानकार होकर भी इस दोषको नहीं छोड़ पाता । इत्यादि पवित्र विचार द्वारा गाली वचन कहने वालेको क्षमा करना चाहिये अर्थात् कुपित नहीं होना चाहिये ।। १४६६ ||
यदि कोई व्यक्ति गाली देवे तो साधु विचार करें कि इसने गाली दी है मारा तो नहीं ? यदि कोई मार पीट देवे तो विचार करना चाहिये कि यह केवल पीड़ित करता है प्राण नहीं लेता है । कदाचित् प्राण लेने लग जाय तो क्षमाशील महामुनि विचार करें कि अहो ! यह प्राण ले रहा है मेरा रत्नत्रय धर्म नष्ट नहीं करता ? इसप्रकार के पावन विचार द्वारा क्रोधको जोतना चाहिये ।। १४६७।।
यतिराज विचार करते हैं कि यह क्रोध जैसे ईन्धनको अग्नि जलाती है वैसे ही कोध धर्मको जलाता है क्रोध घोर पापका उपार्जन करता है । इसतरह क्रोध के अवगुण जानकर सदा क्षमा हो धारण करनी चाहिये ।।१४६८।।
भावार्थ - जैसे अग्निसे सर्व तृणादि जलकर खाक हो जाते हैं वैसे अतिशय दुर्लभ परभवमें साथ जाने वाला मेरा सद्धर्म यदि में क्रोध करू तो अवश्य नष्ट हो जायगा । यह क्रोध अग्नि है इसका ईंधन अज्ञान है, यह क्रोधाग्नि अपमान रूपी वायुसे