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मरणकण्डिका
यतश्चक्षुर्महावोषमनिर्जितम् ।
विदधाति निर्जेतव्यं ततः सद्भिः सर्वथा तदतंत्रितैः १४६२॥ शब्दगंध रसस्पर्श गोश्वराष्यपि यत्नतः I जैतव्यानि हृषीकाणि योगिना शमभागिना ॥ १४६३ ॥ छंद - रथोद्धता
बुर्जयामरनिलिप भर्तृभिः पंच यो विजयतेऽविद्विषः । तस्य सन्ति सकलाः करस्थिताः संपदो भुवननाथपूजिताः ।। १४९४ ।। ।। इति इंद्रियनिजयः ॥
दत्ते शापं विना दोषं नायं मेऽस्तोति सह्यते । कृपा कृत्येत्ययं पापं वराकः कथमर्जति ।। १४६५ ।।
चक्षु द्वारा पदार्थको देखकर प्रायः उसके रसादि विषयों में प्रवृत्ति होती है, रसादि विषयों में रागादिको उत्पन्न कराना प्रायः चक्षुका काम है अतः चक्षुको जीतने का पृथक् रूप से उपदेश देते हैं-
जिस कारणसे चक्षुको नहीं जीतने पर वह महादोषको करता है उसकारण से सावधान साधुओं द्वारा सर्वथा चक्षु जोतने योग्य है ।। १४६२ ।।
प्रशम भावको धारण करनेवाले साधुको प्रयत्न पूर्वक शब्द, गंध, रस, स्पर्श को विषय करने वाले कर्ण आदि इन्द्रियोंको भी जीतना चाहिये ।। १४६३ ।।
मनुष्य और देवोंके स्वामी चक्रवर्ती और इन्द्रों द्वारा जो दुर्जय हैं- जीते नहीं जाते हैं उन पांच इन्द्रिय रूपी शत्रुओंको जो साधु जोतता है पृथिवी पति द्वारा आदरणीय ऐसी समस्त संपदायें उसके हाथमें स्थित हो जाती हैं अर्थात् संसार की संपदाके साथ मुक्ति संपदाको भी वह इन्द्रिय विजयी साधु प्राप्त कर लेता है ।। १४६४।। इसतरह इन्द्रिय विजयका कथन पूर्ण हुआ ।
आगे कषाय विशेषको जीतनेका उपदेश देते हैं उसमें सर्वप्रथम पहली क्रोध कषायको जीतने के लिये उसका प्रतिपक्षी क्षमाका स्वरूप कहते हैं
जब कोई गाली आदिके वचन कहे तब साधु विचार करे कि यह व्यक्ति बिना दोषके गाली दे रहा है मेरेमें यह दोष नहीं है, यह मसद् दोष कह रहा है तो