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अनुशिष्टि महाधिकार संसारे युज्यते स्पस्तु कस्य दोषः प्रदीपिते । महातापकरंगेंहे पापकरिव भोषणे ॥१५२१।। को दोषेष्वप्रशांतेषु निरुद्व गोऽस्ति पंडितः । विषत्स्विव समीपेषु विविधानर्थकारिषु ॥१५२२।। नास्ति निद्रातमस्तुल्यं परं लोके यतस्तमः । सर्वव्यापारविध्वंसि जयेवं सर्वदा सतः ॥१५२३॥ निद्राविमोक्षकाले त्वं निद्रामुचाथवा यते ! । यथा वा पलान्तदेहस्य समाधानं तथा कुरु ।।१५२४॥
इस जन्म में मिथ्यात्व आदि दोषोंको दूर किये बिना सोना बिलकुल उचित नहीं है । देखो ! जिस घरमें अनर्थकारी क्रूर सर्प रहते हैं उसमें सोना जैसे उचित नहीं होता वैसे ही मिथ्यात्व आदि दोषोंके रहते हुए नोंद लेना उचित नहीं है ।।१५२०।।
हिंसा आदि दोषोंसे भरे हुए इस संसारमें निद्रा लेना किसके लिये उचित है ? किसीको भी नहीं, जैसे महासंतापकारी अग्निके द्वारा जाज्वल्यमान भयानक घरमें नींद लेना उचित नहीं होता ।।१५२१॥
रागद्वेष आदि दोषोंके मौजूद रहनेपर कौन ऐसा पंडित है जो निर्भय है ? अर्थात दोषोंको शांत किये बिना झानोजन निद्रा नहीं लेते । जैसे विविध अनर्थ करने बाले शत्रुओंके निकट रहनेपर कोई नहीं सोता है ।।१५२२।।
इस विश्वमें निद्राके समान अन्य कोई अंधकार नहीं है यही सबसे बड़ा अंधकार है क्योंकि यह सर्व हो कायाँको ध्वस करती है। इसलिये हे साधो ! तुम हमेशा निद्राको जोतो ।।१५२३।।
रात्रिमें सतत् जाग्रत रहनेको शक्ति न होवे तो भो यते ! तुम निद्राके त्याग का जो समय रात्रिका पिछला भाग-तीसरा प्रहर है उसमें निद्राको छोड़ देना अथवा उपवास बिहार रोग आदिके कारण शरीर क्लान्त हो चुका है सो जैसा समाधान हो परिणाम शांत हो वैसा निद्राका त्याग करना ॥१५२४।।
हे क्षपक ! तुम्हारे लिये मैंने निद्रा विजय नामका यह एक उपाय बताया है जिसके द्वारा कर्मोंका आस्रव रुक जाता है तथा पुराने कर्मोंकी निर्जरा होतो है अर्थात्