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मरणकण्डिका
कर्मास्रवनिरोधेऽयमुपायः कथितस्तव । कल्मषस्य पुराणस्य तपसा निर्जरा पुनः ।। १५२५।। छंद -उपजाति
उदयमानेन महोद्यमेन अनिद्रा तमसां सवित्री । प्रशस्त कर्मव्यवधान शक्ता विजयते भानुमतेव रात्रिः ।। १५२६ ।।
॥ इति निद्रानिर्जयः ॥
यतस्वाभ्यंतरे बाह्य स्वशक्तिमनगृहयन् ।
तपस्यनलसः स त्वं देहसौख्यपराङ्मुखः ।। १५२७।।
श्रालस्यसुखशोलत्वे
शरीरप्रतिबंधने ।
विदधाति तपो भक्त्या स्वशक्तिसदृशं न यः ।। १५२८ ।।
तस्य शुद्धो न भावोऽस्ति माया तेन प्रकाशिता । शरीरसौख्यसक्तस्य धर्मश्रद्धा न विद्यते ।। १५२६ ।।
इन्द्रिय विजय और कषाय विजय करनेसे जैसे कर्मोकी संवर निर्जरा होती है, वैसे ही निद्रा विजयसे कर्मोंकी संवर निर्जरा होती है ।। १५२५ ।।
जिसप्रकार उदित होते हुए महाप्रचंड ऐसे सूर्यके द्वारा प्रशस्त कार्यों में विघ्न उपस्थित करने वाली एवं अंधकार की जननी स्वरूप रात्रि जोती जाती है उसी प्रकार महाउद्यमशील उदित ऐसे क्षपक द्वारा प्रशस्त कार्य - सामायिक आदि में व्यवधान करनेवाली एवं पापधिकारको जननो ऐसी निद्रा जीती जाती है अर्थात् जो महान् प्रयत्नशील एवं वैराग्ययुक्त है वही साधु निद्रा को जीतता है ।। १५२६ ।
निद्रा विजय वर्णन समाप्त ।
आगे अंतरंग बहिरंग तपका कथन करते हैं
अपि क्षपक ! बाह्य और अभ्यंतर तपमें अपनो शक्तिको नहीं छिपाते हुए निरालस एवं शरीर के सुखसे पराङमुख ऐसे तुम सदा उद्यमशील रहो ।।१५२७ ।।
आलस्य प्रमाद तथा सुखी जीवन बितानेका स्वभाव होनेपर एवं शरीर में स्नेह - आसक्ति होनेपर इन कारणोंसे जो पुरुष, जो साधु श्रद्धा और भक्तिसे अपनी