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________________ अनुशिष्टि महाषिकार यो निगृह्यते येन तेनात्मा वच्यते स्वयम् । सुखशोलतया तेन कर्मासातं च बध्यते ।। १५३० ।। बोर्यान्तराय चारित्र मोहावर्जयतेऽलसः शरीरप्रतिबंधन जायते सपरिग्रहः 1 ।। १५३१ ।। मायादोषाः पुरोद्दिष्टाः समस्ताः संति मायया । अर्मेऽपि निः प्रियाशस्य धर्मोऽस्य सुलभः कथम् ।। १५३२॥ अकुर्वाणस्तपः धिनोति तमोगुणेः । मायावीर्यान्तरायौ च तीव्रौ बध्नाति कर्मणी ।। १५३३ ।। [ ४४३ शक्तिके अनुसार तप नहीं करता है । उस पुरुष के भावोंकी शुद्धि नहीं है, उसने तपस्या करने में माया रखी है अर्थात् शक्ति होते हुए तप नहीं किया है। शरीर के सुखमें आसक्त ऐसे उस पुरुष के धर्मश्रद्धा भी नहीं मानी जावेगी अर्थात् यथाशक्ति तपस्या न करे तो उस साधुके धर्म में श्रद्धा नहीं रहती धर्माचरणमें जी चुरानेवाला मायाचारी भी सिद्ध होता है । इसप्रकार उपदेश देकर आचार्य साधुजनोंको तपस्या में लगा रहे हैं ।। १५२८।। १५२९॥ सुखिया स्वभाव होनेसे जिसने अपनी शक्तिको छिपाया उसने अपने आत्माको स्वयं ठग लिया । इसतरह शक्ति छिपाकर तप नहीं करनेवालेके असाता कर्मका बंध होता है ।। १५३० ।। आलस्य वोर्यान्तराय और चारित्र मोहनीय कर्मका उपार्जन करता है तथा शरीरकी आसक्ति से यह जोव परिग्रहवान होता है ।। १५३१ ।। माया कषायके जो दोष पहले कहे गये हैं वे सब ही दोष उसको लगते हैं जो तप करने में मायाभाव रखता है अपनी शक्तिको छिपाता है, इसतरह उत्तम तपधर्म में भी जिसका प्रीतिभाव नहीं है उस व्यक्तिको आगामी काल में - भव में धर्मं कैसे सुलभ होगा- आगे उसके धर्मकी प्राप्ति कैसे होगी अर्थात् नहीं होगी ।। १५३२ ।। ? जो तपको नहीं करता है वह तपस्यासे होनेवाले संवर निर्जरा आदि समस्त गुणोंसे रहित होता है तथा उस पुरुषके मायाकषाय मोहनीय और वीर्यान्तराय कर्मोंका तीव्र बंध होता है ।। १५३३ ।। तथा जो साधुजन तप नहीं करते हैं उनके अन्य भी दोष
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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