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________________ मरण कण्डिका अकुर्वतस्तपोऽन्येऽपि दोषाः सन्ति तपस्विनः । कुर्वाणस्यपुनः शक्त्या जायन्ते विविधा गुणा: ।।१५३४॥ लोकद्वये पराः पूजाः प्राप्यन्ते कूर्यता तपः । बानटेलिसा नेवाः पुरंदरपुरःसरा ॥१५३५।। तपः फलति कल्याणं कृतमल्पमपि स्फुटम् । बहुशाखोपशाखाढ वटबीजं यथा वटम् ॥१५३६॥ विधिनोप्तस्य सस्यस्य विघ्नाः सन्ति सहस्रशः । तपसो विहितस्यास्ति प्रत्यूहो न मनागपि ॥१५३७॥ मृत्युजन्मजरातस्य तपः सुखविधायकम् । महारोगातुरस्येव भैषज्यं वीर्यसंयुतम् ॥१५३८।। उत्पन्न होते हैं किन्तु शक्तिके अनुसार जो तप करता है उनको विविध गुणोंकी प्राप्ति होतो है ।।१५३४।। तपके गुणतपस्या करनेवाले साधु इस लोक और परलोकमें महान आदर प्राप्त करते हैं इन्द्र आदि अखिल देव तपस्वी जनोंको प्रणाम करते हैं । भाव यह है कि तपस्याके प्रभावसे अनेक ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं तथा देवगणभी चरणों में झुकते हैं ।।१५३५॥ _ विधिपूर्वक किया गया अल्प भी तप बड़े भारी कल्याणको करता है, जैसे अल्प-छोटा भी वटबोज बहुतसी शाखा उपशाखाओंसे युक्त ऐसे वटवृक्ष रूप फलता है ॥१५३६।। विधिपूर्वक-हल द्वारा भूमिको पहले जोतकर अच्छी तरह वर्षा आदिके होने पर बढ़िया बोजके बोनेपर भी फसल आने में हजारों विघ्न बाधायें होती हैं किन्तु विधि पूर्वक किये गये तपस्याके फल प्राप्तिमें किंचित् भी विघ्न बाधा नहीं आती अर्थात् खेती करनेपर उसका फल रूप फसल प्राप्ति होने में संशय है फसल प्राप्त हो अथवा न हो। किन्तु आगमोक्त विघिसे की गई तपस्याका फल जो स्वर्गादि की प्राप्ति आदि है उसमें कोई संशय नहीं है वे अवश्य मिलेंगे ।।१५३७।। मरण, जन्म और जरासे पीड़ित इस संसारी प्राणीको तप हो एक सुख कारक पदार्थ है, जैसेकि महारोग से पीड़ित व्यक्तिको अत्यंत शक्तिशाली रसायन रूप औषधि
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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