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धनुशिष्टि महानिकार संसारस्याविषयन ग्रोऽमकस्येव भास्थतः । सापेन तप्यमानस्य तपो धारागृहायते ॥१५३६।। विवधानस्तपो भक्त्या निरालस्यो विधानतः। देशांतरमपि प्राप्तः स बंधुरिव गृह्यते ॥१५४०।। मातेवास्ति सुविश्वास्यः पूज्यो गुरुरिवाखिलः । महानिषिरिव ग्राह्यः सर्वत्रय तपोधनः ॥१५४१।। लभ्यते मरदेवानां सर्वाः कल्याणसंपदः । परमं सिद्धिसौख्यं च कुर्वता निर्मलं तपः ॥१५४२॥ चिन्तामणिस्तपः पुसो धेनुः कामदुधा तपः । तिलकोऽस्ति तपो भव्यस्तपो मानविभूषणम् ।।१५४३॥
सुखकारक हुआ करती है ।।१५३८।। संसार रूपी असह्य ग्रीष्म ऋतुके सूर्यके तापसे संलश हुए जोपो लिप यह सा धारागृह- फम्पाराके समान है अर्थात् जैसे धारागहसे ग्रीष्मको सूर्यको उष्णता शांत हो जाती है, वैसे तप द्वारा कर्मोंका नाश होनेसे दुःखका नाश होकर शांति प्राप्त होती है ।।१५३६।।
आलसको छोड़कर विधि के अनुसार बड़ी श्रद्धा भक्ति के साथ तपको जो करता है वह देशांतरमें भी चला जाय तो वहां सभीको बंधुजनोंके समान प्रिय होता है । इस प्रकार तपश्चरण द्वारा जगत् तपस्वीका विश्वास करने लगता है । यह जगद् विश्वसनीयता गुण तपसे प्राप्त होता है ।।१५४०।।
तपस्वो मुनि सर्वत्र ही माताके समान विश्वास पात्र होता है । गुरुके समान सबसे पूज्य होता है और महानिधिके समान ग्रहण करने योग्य होता है ।।१५४१॥ ।
मनुष्य और देवोंकी सर्व ही कल्याण संपदायें तथा परम उत्कृष्ट मुक्तिका सुख भी निर्मल तप करनेवालेको प्राप्त होता है ।।१५४२।। यह तप मनुष्यों के लिये चिंतामणि है, क्योंकि जैसे चितामणि चितित वस्तुको देता है वैसे तप मनाबांछित वस्तुका प्रदाता है तथा तप कामधेनु है, जैसे कामधेनु इच्छित पदार्थ देतो है वैसे तप इच्छित फलदायक है । यह तप ललाटके सुदर तिलकके समान साधु जीवनको शोभा बढ़ानेवाला है तथा तप सन्मानका भूषण है अर्थात् तप सन्मान को बढ़ाता है ।।१५४३।।