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________________ मरणकण्डिका प्रज्ञानतिमिरोच्छेदि जायते दीपकस्तपः । पितेव सर्वावस्थासु करोति नहितं तपः ॥१५४४।। विभीमविषयांभोधेस्तपो निस्तारणे प्लवः । तप उत्तारकं ज्ञेयं विभीमविषयावटात् ।।१५४५।। इंद्रियार्थमहातृष्णाच्छेदकं सलिलं तपः । दुर्गतीनामगम्यानां निषेधे परिधस्तपः ॥१५४६।। मनःकायासुखव्याघ्रत्रस्तानां शरणं तपः । कल्मषाणामशेषाणां तीर्थ प्रक्षालने तपः ॥१५४७।। तपः संसारकांतारे नष्टानो देश के यसः । दोघे भवपथे जन्तोस्तपः संबलकायते ॥१५४८।। श्रेयसामाकरो ज्ञेयं भयेभ्यो रक्षकं तपः । सोपानमारुरुक्षणामबाधं सिद्धिमंदिरम् ॥१५४६॥ अज्ञानरूपी अंधकारको नष्ट करनेवाला यह तप दीपक सदृश है तथा पिताके समान सर्व अवस्थाओंमें मनुष्यका हित करता है ॥१५४४॥ यह तप अतिभयानक विषयरूपी समुद्रसे पार होने के लिये नौका सदृश है और अत्यंत भयावह ऐसे पंचेन्द्रियोंके विषयरूपी गर्तसे निकालने वाला भी यह तप ही है ।।१५४५।। इन्द्रियोंको विषयरूपी महातृषाको बुझाने के लिये यह तप जलके समान है तथा अत्यंत दु:खदायी दुर्गतिको रोकनेके लिये अर्गलाके सदृश यह तप है ।।१५४६।। शरीर और मन संबंधी जो दुःख है उस दुःखरूपी व्याघ्रसे डरे हुए जीवोंके लिये तप शरणभूत है और संपूर्ण पापरूपो मैलको धो डालनेके लिये यही तप तीर्थ है-नदीका स्नानतट है। भाव यह है कि संसार में हमारा यदि कोई शरण, सहायक या रक्षक है तो वह तप हो है क्योंकि तपसे निर्भय स्थान--मोक्ष प्राप्त होता है । पाप मलका प्रक्षालन भी तप ही करता है अर्थात् पापकर्म की निर्जरा तप द्वारा होती है । इस प्रकार तपश्चरणके महान् महान गुण आचार्य परमेष्ठी क्षपक एवं साधुओं को बतला रहे हैं ।।१५४७॥ संसाररूपी भयंकर जंगल में दिशामढ़ हुए जोवोंको मार्गदर्शन देनेवाला यदि कोई है तो तप ही है । संसारी प्राणोका यह जो संसार भ्रमणका लवा रास्ता है उससे पार होने के लिये मार्ग का संबल (कलेबा) भी तप है ।। १५४८1। अनेक प्रकारके भयोंसे रक्षा करनेवाला यदि
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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