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________________ अनुशिष्ट महाधिकार तन्नास्ति भुवने यस्तु तपसा यन लभ्यते । तपसा दह्यते कर्म वह्निनेष तृणोत्करः ॥। १५५० ।। चितितं यच्छतो वस्तु सर्वं चितामणेरिव । तपसः शक्यते वक्तु न महात्म्यं कथंचन ।। १५५१ ।। द्रुत विलंबित छंद { ४४७ इति विलोक्य तपः फलमुत्तमं विमलवृत्त निवेशितमानसः । तपसि पूतमतिर्यतले यतिः कुलपसः स फले विगतावरः ।। १५५२ ।। छंद-वंशस्थ - तपःक्रियायामनिशं स्वग्रही नियोजन निहितंबिला. नियोज्यते कि न गृहीतवेतनो मनोषिते कर्मणि न स्वचेटकः ।। १५५३ ।। छंद-वंशस्थ - गुणैरशेषः कलिते मनोरमेनिरस्तदोषे कथिते तपोधनः । सदात्र धर्मे शिवसौख्य कारणे प्रमादमुक्त : क्रियतां महावरः ।। १५५४।। ।। इति तपसः क्रमः ॥ कोई है तो यह तप है । कल्याणोंका आकर तप है निबाध मुक्ति के महल में चढ़ने के इच्छुक जनोंके लिये तप सीढ़ियों के समान है ॥१५४९ ।। ऐसी कोई वस्तु संसार में नहीं है जो तपश्चरण द्वारा प्राप्त नहीं होती हो । तपस्या द्वारा कर्म भस्मसात् होता है जिसप्रकार अग्नि द्वारा तृणोंका ढेर भस्मसात् होता है ।। १५५० ।। चितामणि रत्न के समान चितित वस्तुको देनेवाले इस तपका माहात्म्य किसी प्रकार भी कहना शक्य नहीं है ।। १५५१ । । इसप्रकार निर्दोष चारित्रके पालन में लगाया है मनको जिसने ऐसे यति जन तपस्याके उत्कृष्ट फलको देखकर पवित्र बुद्धि युक्त हो तपमें प्रयत्नशील होते हैं और खोटे तपके फलमें आदर नहीं करते हैं ।। १५५२ ।। अपने हितको चाहनेवाले यति द्वारा शरीरको तपस्याकी क्रियाओं में सततरात दिन लगाना चाहिये । देखो ! जिसने अपनो वेतन - तनख्वा ली है ऐसे निज भृत्व को क्या इच्छित कार्य में नहीं लगाया जाता ? जाता हो है ।। १५५३ ।। आचार्य महोदय कह रहे हैं कि भो क्षपकराज ! संयुक्त तथा दोषोंसे रहित ऐसे तपोधन गणधर आदिके द्वारा संपूर्ण मनोरम गुणोंसे कहा गया मोक्षसुखका
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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