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मरण कण्डिका
क्षपकाननराजीवं ततो भाति विकाशितम् । हतमोहतमस्कांडः सुरिवाक्यमरीचिभिः ॥१५५५।। सूरे तिप्रभावेण तत्सदो मुखपंकजः । सरोवर्रामवाकोणं पमं विकसितः रवेः ॥१५५६।। प्राप्योपवेशपीय क्षपकोऽनि निर्वतः । समस्तनमविध्यसि तृषार्त इव पानकम् ॥१५५७।। ततोऽमुशासनं श्रव्यं श्रत्या संविग्नमानसः ।
उत्थाय बंदतेसूरि स नम्रीकृतविग्रहः ॥१५५६।। कारणास्वरूप यह उत्तम ता धर्म है इसमें प्रमादसे रहित होकर आप सभी के द्वारा महान् आदर करना चाहिये अर्थात् तपधर्मका अनुष्ठान करना चाहिये ।।१५५४।।
इसप्रकार सपका माहात्म्य सुनकर मोहरूपी अंधकार समूहको नष्ट करनेवाले निर्यापकाचायंके बचनरूपी किरणों के द्वारा क्षपकका मुखकमल विकसित हो शोभने लगता है ।।१५५५।।
_ निर्यापक आचार्य जब क्षपक युक्त उस मुनि परिषद्के मध्य में तपधर्मका मनोहर उपदेश देते हैं तब आचार्य के बचन प्रभावसे मुनियों के विकसित हुए मुखकमलों द्वारा वह परिषद अत्यंत सुशोभित होती है, जैसे सूर्यको किरणोंसे विकसित हुए कमलों द्वारा भरा हुआ सरोवर सुशोभित होता है ।।१५५६।।
उस समय क्षपक मुनि उपदेशरूपी उस अमृतको प्राप्तकर अत्यंत प्रसन्न होता है, जैसे प्याससे पीड़ित पुरुष समस्त थकावट और प्यासको नष्ट करनेवाले पेत्रकोठंडाई आदिको प्राप्तकर प्रसन्न होता है, वैसे क्षपक आचार्य के बचनामतको पीकर आनंदित होता है ।। १५५७।।
तदनंतर कानोंको अत्यंत प्रिय ऐसे जिनशासन-तपधर्मको सुनकर उत्पन्न हुआ है वैराग्य एवं धर्म में अतिशय श्रद्धा जिसे ऐसा वह क्षपक संस्तरसे उटकर बैठ जाता है और सर्वागको अति नम्र करके वह आचार्य देवकी वंदना करता है-नमस्कार करता है ॥१५५८।। वह कहता है कि हे गुरुदेव ! आपके इस उपदेशामृत को मैं शेषाक्षतके समान मस्तकपर धारणकर परीषहोंको जीतकर जैसा आप कहते हो वैसा आचरण करूगा ।।१५५६।।