________________
अनुशिष्टि महाधिकार
तवेमा वेशनां कृत्वा शेषामिव शिरस्यहम् । यथोक्तमाचरिष्यामि पराजितपरीषहः ॥१५५६।। यथा मे निस्तरत्यात्मा तुष्टिरस्ति यथा तव । संघस्य सर्वस्य यथा तवास्ति सफलः श्रमः ॥१५६०।। यथात्मनो गणस्यापि कीतिरस्ति प्रथीयसी । अहमाराषषिष्यामि तथा संघप्रसादतः ॥१५६१।। पाराधिता महाधीररधिरमनसापि नो । प्रस्ताधां साधयिष्यामि देवीमाराधनामहम् ।।१५६२।। तवोपदेश पीयूषं पीत्वा को नाम पावनम् । विभेतोह क्षुदादिम्पः कातरोऽपि नरः प्रभोः ॥१५६३।। पलालरिव निःसारबहुभिर्भाषितः किमु । प्रत्यूहकरणे शक्तो न मे शकोऽपि निश्चितम् ॥१५६४।। ध्यानविघ्नं करिष्यति कि सुवादिपरोषहाः ।
कषायाक्षद्विषो वा मे त्वत्प्रसावमुपेयषः ॥१५६५।।
मैं तो वैसा कार्य, आचरण तपस्या करूगा जैसे मेरा आत्मा संसार समुद्रसे पार हो जाय ! जिसप्रकार आपको संतुष्टि होवे । समस्त संघ और आपका श्रम जैसे सफल हो वैसा ही आचरण मैं अवश्यमेव करूगा ।।१५६०।। भो गुरुदेव ! जिसप्रकार अपनी और संघकी भी कीत्ति विस्तारको प्राप्त होये उसप्रकार को आराधनाको मैं संघके प्रसादसे करूंगा ॥१५६१।। हे पूज्यवर ! जिस आराधनाको महाघोर वीर पुरुषोंने किया है जो धैर्य रहित व्यक्ति द्वारा मनसे भी करना शक्य नहीं उस पापको नष्ट करनेवाली सम्यक्त्व आदि चार प्रकारको आराधना देवो को मैं सिद्धि करूगा ॥१५६२।। हे प्रभो ! आपके पावन उपदेशरूपी अमृतको पोकरके ऐसा कौनसा मानव है जो क्षुधा तृषा आदिसे डरेगा ? अर्थात् कोई भी नहीं डरता है ।।१५६३।।
पलाल-घास या भूसाके समान बहुतसे निःसार भाषणसे क्या मतलब है । हे भगवन् ! मेरी तपस्यामें तो इन्द्र भो विघ्न करने में नियमसे समर्थ नहीं होगा ॥१५६४।।
हे गुरुवर ! आपके प्रसादको प्राप्त हुए मेरेको भूख प्यास आदि परीषह क्या करेंगे तथा कषाय और इन्द्रिय रूपी शत्रु भी क्या बिगाड़ कर सकेंगे ? कुछ भी नहीं कर सकेंगे ।।१५६५॥