________________
४५० ]
मरणकण्डिका
छंद-रथोद्धतास्थानतश्चलति नाकपर्वतः पुष्करं वसुमति प्रपद्यते । स्वत्प्रसावमुपगम्य न प्रभो ! जातु पामिविकृति मनागपि ।।१५६६।।
छंद-तोटकमनमा नषा वचसा भायखनुशासनमेतवनन्यमतिः । तव यो विवधाति सदा विधिना शिवतातिमुपैति स मुक्तमलः ॥१५६७।।
॥ इति अनुशिष्टिा ।
भो गुरुवर्य ! हे प्रभो ! कदाचित् सुमेरु पर्वत अपने स्थानसे चलायमान हो जाय, पुष्कर पृथिवीपने प्राप्त हो जाय । किन्तु आपके प्रसादको प्राप्त करके मैं किंचित भी विकारको प्राप्त नहीं होगा ।।१५६६।। हे भगवन् ! आपके इस अनुशासनको जो पुरुष अनन्यमति होकर मन से, वचनसे और कायसे विधिपूर्वक सदा धारण करता है, वह पुरुष कर्ममेलसे मुक्त हुआ मोक्षसुखकी परंपराको प्राप्त होता है ।।१५६७।।
____ इसप्रकार सल्लेखनाके चालीस अधिकारोंमें यह तैतीसवां अनुशिष्टि नामका महाधिकार पूर्ण हुआ । (३३) ।
विशेषार्थ-इस मरणकण्डिका ग्रंथमें समाधिमरणका वर्णन करने के लिये अर्ह, लिंग, शिक्षा आदि चालीस अधिकार हैं । इनमें अनुशिष्टि नामका अधिकार सबसे बड़ा है । इसमें निर्यापक आचार्यका क्षपकके लिये अत्यंत-हृदयग्राही उपदेश है। इस सुविस्तृत उपदेशके प्रारंभमें सूत्ररूप पांच कारिकायें हैं--
शोधयित्वोपधिं शय्यां वैयावृत्यकरानपि । नि:शल्यीभूय सर्वत्र साधो ! सल्लेखनां कुरु ।।७४६।। मिथ्यात्ववमनं दृष्टि, भावनां भक्ति मुत्तमा । रति भावनमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे कुरुधमं ।।७५०।। मुने ! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपादि निग्रहम् । हृषीक निजयं द्वधा तपो मार्गे कुरुघमम् ।।७५१।। भवद्रुममहामूलं मिथ्यात्वं मुच सर्वथा । मोह्यते सगुणा बुद्धि मद्य नेव मुने ! लघु ।।७५२।।