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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [२५५ स्थकोये परकीये वा धर्मकृत्ये विनश्यति । त्वमपृष्टो वदान्यत्र पृष्ट एव सदा धर' ।।८६४॥ गर्वति ऋषयः सत्यं यविद्या निखिलाः कृताः। तम्लेच्छस्यापि सिध्यन्ति सर्वका सस्यवादिनः ॥६॥ वह्यते न हुताशेन न निमज्जति वारिणि । धन्यः सत्यबलोपेतो नरो नद्यापि नोह्यते ।।८६६।। बश्या भवंति सत्त्येन देवताः प्रणमान्ति च । विमोचयन्ति सत्येन ग्रहतः पांति च स्फुटम् ॥६॥ नरो मासव विश्वास्यः पूज्यो गुरुरिवाखिले । सत्यवावी प्रियो मित्यं स्वबंधुरिव जायते ।।८६८ । भाषमाणो नरः सत्यं लभते प्रोतिमत्तमाम । बुधानंदकरी कीति शशांककरसुदराम् ।६।। - .....-..- ...... ... . हे यते ! स्वकीय या परकीय धर्मकार्यका यदि नाश हो रहा हो तो उस समय तुम बिना पूछे, बिना कहे बोलना और अन्य समयमें पूछने पर ही बोलना ।।८६४।। ऋषीजन सत्य हो बोलते हैं उनके द्वारा निखिल विद्यायें को गयो हैं, वे विद्यायें सत्यवादी म्लेच्छको भी सिद्ध होती हैं अर्थात् यदि मानव म्लेच्छ है किन्तु सत्यभाषी है तो उसको भी विद्या सिद्ध हो जाती है फिर अन्यकी बात क्या? ।।८६५॥ सत्य वचन रूप बल जिसके पास है वह धन्य मनुष्य अग्नि द्वारा नहीं जलता है, पानी में नहीं बता, बड़े बेगसे बहनेवाली नदो उसे बहाके नहीं ले जा सकती।।८६६।। सत्यसे देवता वश हो जाते हैं नमस्कार करते हैं, सत्यके कारण देवता ग्रहपिशाचसे छुड़वा देते हैं और रक्षा करते हैं ।।८६७।। सत्यवादी मनुष्य माताके समान सबके द्वारा विश्वसनीय होता है, गुरुके समान पूज्य होता है और नित्य ही बंधुके समान प्रिय होता है ॥८६८।। सत्य बोलने वाला मनुष्य उत्तम प्रीतिको प्राप्त करता है और विद्वान् को आनंद करनेवाली चन्द्र किरणके समान सुदर कीर्तिको सत्यवादी ही प्राप्त करता है ॥८६॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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