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________________ २५४ ] मराकण्डिका कर्कशं निष्ठुरं हास्यं परुषं पिशुनं वचः । ईर्ष्यापरमसंबद्ध हितं सकलं मतम् ॥८५८॥ प्राणिघातादयो धोषाः प्रवर्तते यतोऽखिलाः ।। सावधं तद्वचो ज्ञेयं विधारंभवर्गकम् ॥५६॥ अवज्ञाकारणं बरं कलहं त्रासवर्द्ध कम । प्रश्रव्यं कटकं ज्ञेयमप्रियं वचनं बुधः ॥८६०॥ रागद्वष मद क्रोध लोभमोहादिसंभवं । वितथं वचनं हेयं संयतेन विशेषतः ॥८६१॥ विपरीतं ततः सत्यं काले कार्ये मितं हितम् । निर्भक्ताविकथं महि तदेव वचनं शृणु ॥८६२।। नरस्य चंदन चंद्रचंद्रकांतमणिर्जलम् । न तथा कुरुते सौख्यं वचनं मधुरं यथा ॥८६३।। कर्कश, निष्टुर, हास्यमिश्रित, परुष, चुगली, ईर्षापरक और असंबद्ध ये सब वचन गहित कहे जाते हैं ॥८५८।। जिस वचनसे प्राणी वध आदि अखिल दोष उत्पन्न होते हैं वह सावध वचन है जो कि षट्काय जीवोंके आरंभका कथन करता है ।।८५६।। अवज्ञाके कारण रूप वचन, वैर, कलह, त्रासको बढ़ानेवाले वचन, नहीं सनने योग्य वचन, कटक वचन ये सब अप्रिय वचन हैं, ऐसा बुद्धिमान् कहते हैं ।।८६०॥ राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोहादिसे उत्पन्न हुआ असत्य, वचन, संयत द्वारा विशेष रूपसे त्याज्य है ।।६।। ऊपर कहे गये सब प्रकारके असत्य वचनसे विपरीत जो सत्य है ऐसे सत्य वचनको यथा समय कार्यवश हित और मितरूप बोलना चाहिये तथा जो भोजन कथा आदि विकथासे रहित है ऐसा वचन हे मुने ! तुम बोलना और ऐसे ही वचनको सुनना ।।८६२।। इस मनुष्यको चंदन, चन्द्रमा और चन्द्रकांत मणिसे उत्पन्न हुआ जल वैसा सुख (शीतलता) नहीं करता है जैसा मधुर वचन सुख शांति करता है, शीतलता प्रदान करता है ।।८६३।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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