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________________ [२५३ अनुगिष्टि महाधिकार कलशोऽस्तीति यभूते द्रव्यादीनां चतुष्टयम । अपर्यालोच्य यत्प्रोक्तमभूतोद्भावकं जिनः ॥५४॥ द्वितीयं तद्वचोऽसत्यमभूतोद्भावनं मतम् । अस्त्यकाले सुराणां च मृत्युरित्येवमादि यत् ॥८५५।। तृतीयं तदयोऽसत्यं यवनालोच्य भाषते । पदार्थमन्यजातीयं गौर्वाजीत्येवमादिकम् ॥८५६॥ सावधं गहितं बाक्यमप्रियं च मनोषिभिः । त्रिप्रकारमिति प्रोक्त तुरीयकमसूनृतम् ॥८५७।। ---- --- अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयकी अपेक्षाओंका विचार न करके जो घट पहले था उसको वर्तमानमें है ऐसा कहना अभूत उद्भावक असत्य वचन है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।।८५४॥ भावार्थ--घट पहले था उसको अभी है ऐसा कहना कालको अपेक्षा किये बिना कहा गया अतः यह असत्य है, अमुक क्षेत्रमें है और अमुक क्षेत्रमें नहीं है इसका कछ विचार नहीं करना विपरोत बोलना क्षेत्रको अपेक्षा असत्य है, इसीप्रकार कृष्ण वर्णका घट है तो भी उसका सर्वथा निषेध करना कि घट है ही नहीं इत्यादि रूपसे पहले असत्यके विकल्प संभव है । अभूतके उद्भावन रूप दूसरा असत्य वह है कि देवोंके अकालमें मरण होता है ऐसा कहना । आगममें देवोंक अकालमरणका निषेध है अतः उसका अस्तित्व कहना असत्य वचन है इसीप्रकार अन्य उदाहरण भी समझना ।।८५५।। पदार्थ अन्य जातिका है और उसको अन्य जातिका कहना तोसरा बिना सोचे कहा गया असत्य है । जैसे बैल है उसे यह घोड़ा है ऐसा कहना इसोतरह अन्य उदाहरणमें लगा लेना ॥८५६।। चौथे असत्यके मनीषियोंने तीन भेद बताये हैं, सावध वचन, गहित वचन और अप्रिय वचन ।।८५७।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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