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मरणकण्टिका
छंद-बंशस्थपरी सपर्या ददंती निरत्यये निवेशयन्ती अधयाचिते पवे । करोत्यहिंसा जननीव पालिता सुखानि सर्वाणि रजांसि धुन्धती ॥८५१॥
॥ इति अहिंसा महाव्रतं । मुचासत्यं वचः साधो ! चतुर्भेदमपि विधा । संयमं विवधानोऽपि भाषादोषेण बाध्यते ॥८५२।। प्रथमं तद्वचोऽसत्यं यत् सतः प्रतिषेधनम् । अकाले मरणं नास्ति नसणामिति यद्वचः ।।८५३॥
अहिंसा महानतका पालन करेगा उस मुनिके विषयमें क्या कहना ? वह तो निर्वाणको प्राप्त करता है। अहिंसावतके वर्णनका उपसंहार
__ यह अहिंसा रूप जननी श्रेष्ठ पूजाको देती है, बुधजनोंके द्वारा याचित ऐसे अविनाशी पदमें प्रवेश कराती है। पापोंका नाश कराती हुई सर्व सुखोंको करती है इसतरह अहिंसाका पालन करनेपर इच्छित फल मिलते हैं ।।८५१।। सत्य महातका वर्णन
हे साधो ! तुम मन, वचन, कायसे चार प्रकारके असत्यका त्याग करो, संयम को धारण करते हुए भी यह जीव भाषादोष-असत्य रूप दोषसे कर्मद्वारा बाधित होता है अर्थात् संयम पालन-अहिंसाका पालन करनेपर भी यदि असत्य बोलता है तो उसके कर्मबंध अवश्य होता है ।। ८५२।। चार प्रकारका असत्य कौन है सो बताते हैं
पहला असत्य वह है जो सत् मौजूद वस्तुका निषेध करता है, जैसे मनुष्योंके अकालमें मरण नहीं होता ऐसा कहना प्रथम कोटिका असत्य है क्योंकि आगम (तथा तर्कसे) में मनुष्यके अकाल मरण होनेका कथन है और यह वचन उस सत् का अपलाप करता है अतः असत्य है ।।८५३।।