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________________ २५६ ] मरणकण्डिका गुणानामालयः सत्यं मस्यामामय गाधिः । प्रमाणमस्ति सत्येन जितोऽपि गुणः परः ॥८७०।। संपयंते गुणाः सत्ये संयमो नियमस्तपः । संयतोऽपि मृषावावी जायते तृणतो लघः ॥८७१॥ मुडो जदी शिलो नग्नश्चीवरी जायतां नरः । विडंबनाखिला सास्य वितथं यदि भाषते ।।८७२।। कालकटं यथान्नस्य यौवनस्य घथा जरा । गुणानां विद्धि सर्वेषां नाशकं विप्तथं तथा 11८७३॥ स्वमातुरप्यविश्वास्यो मृषाभाषणलालमः । शेषाणां किमु लोकानां न शरिव जायते ॥८७४॥ एकनासत्यघाक्येन सत्यं बलपि हन्यते । सर्वत्र जायते नित्यं शंकितोऽसत्यभाषकः ॥८७५॥ - - -- . सत्य गुणोंका आलय है, जैसे मछलियोंका पालय-स्थान समुद्र है, अन्य गुणोंसे रहित होनेपर भी एक सत्यसे मनुष्य प्रमाणभूत माना जाता है ।।८७०॥ सत्य के होनेपर सर्वगुण प्राप्त होते हैं संयम, नियम और तपकी सिद्धि होती है, संयत भी यदि मुषावादी है तो वह तृणसे हीन हो जाता है ||८७१।। यह मनुष्य चाहे मुडन कर लेवे, जटा धारण करे, नग्न हो जाय, गेरूआ आदि वस्त्र पहने, किन्तु यदि वह असत्य बोलता है तो उसका मुंडन आदि सब ही कार्य विडंबना मात्र हो जाता है ।।८७२।। जैसे अन्नका नाशक कालकूट विष है, यौवनकी नाशक जरा है, वैसे सर्व गुणों का नाशक असत्य भाषण है ।।८७३।। झूठ बोलनेकी जिसकी आदत है ऐसे मनष्यपर स्वयंकी माता भी विश्वास नहीं करतो तो फिर शेष लोगोंका वह शत्रुके समान क्या नहीं होगा ? होगा हो ।1८७४।। एक असत्य वाक्य द्वारा बहुतसा सत्य भी नष्ट हो जाता है। असत्यभाषी मानव सर्वत्र सदा शंकित बना रहता है अर्थात असत्यवादीको सदा शंका रहती है कि मेरा असत्य प्रकट न हो जाय ।।८७५।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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