SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुशिष्टि महाधिकार प्रयो भयं वैश्मकीतिर्मरणं कलिः । विवादो मत्सरः शोकः सर्वेऽसत्यस्य बांधवाः ||८७६ ॥ श्रायास रसना छेद सर्वस्वहरणादयः 1 सत्येन लभ्यंते परन नरकावनिः ।।८७७।। कलिलस्यास्रवद्वारं वितथं कथितं जिनः । निष्पापो हि वसुस्तेन श्रितेन नरकं गतः ॥८७८ [ २५७ अविश्वास, भय, बेर, अकोत्ति, मरण, विवाद, विषाद, मत्सर और शोक ये सब असत्यके बंधुजन हैं ।। ६७६ ।। असत्य बोलनेसे इस लोक में महाभयानक कष्ट जिह्वा छेद और सर्वस्व हरण हो जाता है और परलोकमें नरकगतिकी प्राप्ति होती है ||८७७|| असत्य पापोंका अस्त्र द्वार है ऐसा जिनेन्द्र देखने कहा है, क्योंकि इसका आश्रय लेनेसे निष्पाप वसु राजा नरकमें गया ||८७८|| राजा वसुकी कथा स्वस्तिकावती नगरीमें राजा विश्वावसु राज्य करता था उसके पुत्रका नाम वसु था । वसु राजपुत्र एक ब्राह्मण पुत्र नारद ये क्षीरकदंब उपाध्यायके पास पढ़े थे, उपाध्यायका पुत्र पर्वत भी उन दोनोंके साथ पढ़ा, समय पर क्षीरकदंबने दीक्षा ली, राजा विश्वावसु ने भी दोक्षा ली। अब वसु राजा बन गया। एक दिन पर्वत और नारद में "अर्जेर्यष्टव्यं" इस शास्त्र वाक्य पर विवाद हुआ, पापी पर्वतने इस वाक्यका अर्थ बकरोंसे हवन करना अर्थात् पशुयज्ञ करना ऐसा किया और दयालु नारदने पुराने धान्यों से हवन करना ऐसा किया । नारदका अर्थ करना बिलकुल सत्य था । पर्वतका कहना झूठा था । दोनों विवाद करते हुए राजा वसुके पास पहुँचे दोनोंने अपनी बात रखो । यद्यपि राजा जान रहा था कि नारदका कहना सत्य है तो भी उसने पर्वतकी पक्ष ली क्योंकि वह पर्वतकी मातासे वचनबद्ध हुआ था कि मैं पर्वतको पक्षमें बोलूँगा । जब राजसिंहासन पर बैठे हुए पर्वतको पक्ष लेकर वसु झूठ बोलता है तो उस महापापरूप असत्य भाषणसे उसका सिंहासन पृथ्वी में धस गया और वसु वहाँपर घुटकर तत्काल मरा और नरक में चला गया। इसतरह असत्य के कारण घोर यातना वसुको भोगनी पड़ी। 1 वसुराजाको कथा समाप्त |
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy