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मरण कण्डिका
प्रसत्यवादिनो दोषाः परत्रापि भवन्ति ते । मुंचतोऽपि प्रयत्नेन मषाभाषादिदूषणम् ॥७॥ ये संति वचनेऽलोके दोषा दुःखविधायिनः । त एव कथिता जैनः सकलाः कर्कशाविकाः ॥८८०॥ असत्यमोचिनो दोषा मुचंति सकला इमे ।। तद्विपक्षा गुणाः सर्वे लभ्यन्ते बुधपूजिताः ॥८८१।।
छंद :भवभयविचयनवितथविमोची निरुपमसुखकरजिनमतरोची । परमं स्वयति कलिलमशेषं चशयति मुनिनुतवचनविशेषम् ।।८८२॥
इति सत्यमहावतं ।
इस लोक में जो असत्यवादी हैं उसके अविश्वास आदि जो दोष बताये हैं वे परलोक में भी होते हैं भले ही वहाँ परलोकमें असत्य आदि को प्रयत्नसे छोड़ने वाला हो अर्थात् यहां असत्य भाषण किया और परलोकमें नहीं किया तो भी उसपर आरोप होता है कि इसने झूठ बोला था, इसपर कोई विश्वास नहीं करता था इत्यादि ११८७९।।
असत्य वचनमें जो दुःखदायी दोष होते हैं वे ही सब दोष कर्कश, कलह आदि रूप वचनों में होते हैं ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।८८०॥
जो असत्यका त्यागी है उसके पूर्वोक्त अविश्वास आदि सब दोष छूट जाते हैं और उन दोषोंसे विपरीत विश्वासपात्र होना, विरोध नहीं होना, सर्वप्रिय होना इत्यादि ज्ञानी पुरुषोंके द्वारा पूजित रूप सर्वगुण प्राप्त होते हैं ।।८८१।। संसारके भय समूहका कारण जो असत्य है उस असत्यका जो त्यागी है और निरुपम सुखकर ऐसे जिनमतको जो रुचि करता है ऐसा वह महापुरुष-मुनि सर्व पापोंको दूर करता है अथवा पापको नष्ट करने के लिये बह दव-अग्नि के समान है, तथा मुनि द्वारा स्तुत्य ऐसे वचन विशेषको वह सत्यवादी बश करता है ।।८८२।।
सत्य महावतका वर्णन समाप्त ।