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________________ [ २५६ अनुशिष्टि महाधिकार बह्वल्पं च परद्रव्यमहत्तं मा ग्रहीस्त्रिया । प्रतस्य ध्वंसने शक्त' बंतानामपि शोषनम् ॥८५३॥ दूरस्थितं फलं रक्त यथा तृप्तोऽपि मर्कटः । ग्रहीतु धावते एष्ट्वा भूयो यद्यपि मोक्ष्यति ।।८८४।। सथा निरीक्षते द्रव्यं यद्यत्तत्तज्जिघृक्षति । जीवस्त्रिलोकलामेऽपि लोभग्नस्तो न तृष्यति ॥८॥ यथा विवर्तते वातः क्षणेन प्रथते यथा । प्रयते क्षणतो लोभस्तथा मंदोऽपि देहिनः ॥८८६॥ प्रवद्ध च सातो सोने कृयाकृत्यविचारकः । स्वस्य मृत्युमजानानः साहसं कुरुते परं ॥७॥ सर्वोप्यथ हृते द्रव्ये पुरुषो गतचेतनः । शक्तिविद्ध इव स्थान्ते सदा दुःखायते तराम् ।।८।। हे साधो ! तुम बहुत हो या अल्प किसी भी परद्रव्यको मन, वचन, कायसे बिना दिये ग्रहण मत करना, दांतोंका शोषन करने वालो वस्तु भी यदि बिना दिये ली जाय तो वह व्रतका नाश करने में समर्थ है ।।८८३।। जैसे तृप्त हुआ भी बंदर है किन्तु वह दूर में स्थित लाल फलको देखकर ग्रहण करनेके लिये दौड़ता है भले ही पोछे छोड़ देगा । वैसे लोभ ग्रस्त जीव जो जो वस्तु देखता है उसी उसीको ग्रहण करना चाहता है, वह तो तीन लोकका लाभ होनेपर भी तृप्त नहीं होता है ।।८८४८८५! जैसे वायु क्षणमें बढ़ती है विस्तीर्ण होती है वैसे जीवका मंदभी लोभ क्षण मात्र में बढ़ता है तीन होता है !।८८६।। इसतरह लोभके वृद्धिंगत हो जानेपर कृत्य और अकृत्यको विचारने वाला पुरुष अपनो मृत्युको नहीं जानता हुआ अति साहस करता है ।।८८७।। द्रव्य के चुराये जानेपर सर्व ही पुरुष मृत्यु जसो अवस्थाको प्राप्त होता है, वह सदा मन में अत्यंत दुःखका वेदन करता है, जैसे शक्ति नामके शस्त्रसे विद्ध हुआ पुरुष अत्यंत दुःखी होता है ।।८८८॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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