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मरणकण्डिका द्रविणे ग्रहिलीभूय म्रियतेऽथ हृते नरः । हाकारमुखरः क्षिप्रं नृणामों हि जीवितम् ६॥ विशंसि पर्वसेऽम्भोधौ युद्धदुर्गवनाविषु । त्यजति प्रध्यलोभेन जीवितं बांधवानपि ॥६॥ विद्यमाने धने लोका जीवन्ति सहबंधुभिः । तस्मिन्नपहृते तेषां सर्वेषां जीवितं हृतम् ॥८६१॥ न विश्वासो दया लज्जा संति चौरस्य मानसे । नाकृत्यं धनलुब्धस्य तस्य किचन विद्यते ॥२॥ अपरारे कृतेऽपाल पो कोणि जापते । बंधवोऽपि न चौरस्य पक्षे संति कदाचन ॥१३॥
धन के चूराये जाने पर यह मनुष्य पागल होकर हा हा कार करता हुआ शीघ्र ही मर जाता है, क्योंकि मनुष्योंका जीवन धन है ।।८८६।।
घनके लोभसे ये संसारी प्राणी पर्वत पर चढ़ जाते हैं, समुद्र में प्रवेश करते हैं, युद्ध भूमि, दुर्ग, वनादिमें प्रवेश कर जाते हैं और जीवन तथा बंधुजनोंको भी छोड़ देते हैं ।।८६०)
परके धन चुरानेपर इसप्रकार वह जीव कष्ट उठाता है जिसका कि धन चोरोमें गया है, इसतरह आचार्य देव चोरीसे होनेवाली महान् हानिको दिखला रहे हैं । आगे और भी कहते हैं कि यह संसारी लोक धन होनेपर बंधुजनोंके साथ सुखपूर्वक जीवित रहते हैं, ऐसे उस धनके अपहरण करनेपर सभी बंधुजनोंका जीवन ही अपहरण किया ऐसा समझना चाहिये अर्थात् जिसने किसीको चोरी को उसने उसका और उसके समस्त परिवारके जीवन का नाश किया ऐसा समझना चाहिये ।।८९१।।
चोरके मनमें विश्वास दया और लज्जा नहीं रहती है, उस धन लोभीके तो कोई अकार्य ही नहीं रहता जिसको कि वह नहीं करे ।।८९२।।
यदि कोई हिंसा आदि अन्य अपराध करे तो उसके पक्ष में लोक कदाचित हो जाते हैं किन्तु चोरके पक्षमें बांधव भी नहीं होते हैं ।।८९३।। अन्य कोई दोष करने पर