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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २६१ वितरंति जनाः स्थानं दोऽन्यत्र कृते सति । स्तेये पुनर्न मातापि पुष्पातकदायिनि ॥८६४॥ व्रध्यापहरणं द्वारं पापस्य परमिष्यते । सर्वेभ्यः पापकारिभ्यः पापीयांस्तस्करो मतः ।।८६५।। प्राश्रयं स्वजनं मित्रं दुराचारो मलिम्लुचः । सर्व पातयते दोघे दुष्षमे दुर्यशस्यपि ॥८६६।। षधं बंधं भयं रोचं सर्वस्वहरणं मतिम् । विषादं यातना लोके तस्करो लभते स्वयम् ।।८६७॥ शंकमानमना निद्रां तस्करो जातु नाश्नुते । कुरंग इव वित्रस्तो वीक्षते सकला दिशः ॥१९॥ प्राकर्ण्य भूषिकस्यापि शब्दं शंकित मानसः । धावते सर्वतः सद्यः स्खलन्स्वमरणाकुलः ||६|| -- -. . . - - --. -.... -... ..लोक उस सदोष को रहने हेतु स्थान देते हैं किन्तु अत्यंत पापदायक चोरीके करनेपर उस चोरको माता भी रहने के लिये स्थान नहीं देती है ।।८९४॥ __ पापका सर्वोत्कृष्ट द्वार पराये धनको चुराना है । समस्त पापी जीवों में अधिक पापी चोर है ऐसा माना गया है ।।८६५।। चौरका दुराचार अर्थात् चोरो रूप जो पाप है वह उसके सर्व हो आश्रयभत स्वजनको और मित्रको भी भयंकर दोष-कष्ट और अपयशमें डाल देता है ।।८६६ इस लोक में चोर स्वयं बघ, बंध, भय, रोध, सर्वस्वहरण, मरण, विषाद और यातनाको प्राप्त होता है ।।८९७॥ चोर शंकित मनयुक्त हुआ कदाचित् भी निद्राको नहीं ले पाता । वह हिरणके समान भयभीत हुआ संपूर्ण दिशाओंको देखता रहता है (कि कहींसे कोई पकड़नेको न आजाय) ।।१८।। चोर सदा ही शंकित मनयुक्त हुआ चूहेके शब्दको सुनकर तत्काल मरणको शंकासे आकुल हो स्खलित हुआ चारों तरफ दौड़ने लग जाता है ॥८९९॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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