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मरणकण्डिका
प्रवत्ते तृणमात्रेऽपि गृहोते संयतोऽपि ना । अप्रत्येयो यथा स्तेनस्तुणतो जायते लघुः ||६००॥ विधाय पुरुषः स्तेयं नारकी वसति गतः । सहते वेदनास्तत्र चिरकालं सुदुःसहाः ॥६०१।। लभते वारुणं दुःखं स्तेनस्तिर्यग्गतावपि । प्राप्नोति प्रायशः पापो योनों नीचामसौ चिरम् ॥६०२।। नुस्वेऽहता हृता वार्थाः पलायतेऽखिलाः स्वयम् । न चीयंते प्रयत्नेऽपि स्वयं यास्यति वा ततः ॥६०३॥ श्रीभूतिमहतीं पु पितानाम् । परद्रव्यरतो दीनः प्रपेदे वीर्घसंसतिम् ॥६०४॥
कोई संयमी मुनि है और वह बिना दिये तिनके मात्रको भी ग्रहण करता है तो चोरके समान अविश्वस्त हो जाता है तथा तृणसे भी हीन हो जाता है ॥१०॥ जो पुरुष चोरी करता है वह नरक में जाता है और वापर चिरकाल तक घोर वेदनाको सहता है ॥६०१॥
चोर तियंचतिमें भी दारुण दुःख उठाता है । यह पापी प्रायः नीच योनिको ही चिरकाल तक प्राप्त करता है ।।९०२।।
चौर्य पाप करनेवाला व्यक्ति कदाचित् मरकर पुनः मनुष्य भी हो जाय अथवा अनेक गति में भ्रमण कर कदाचित् पुनः मनुष्य हो जाय तो उसका धन चोरी में चला जाता है अथवा बिना चोरीके संपूर्ण धन अपने आप नष्ट हो जाता है। कितना भी प्रयत्न करो किन्तु उसका धन बढ़ता नहीं, जो है वह स्वयं चला जाता है ।।१०३।।
पराये घनमें आसक्त हुआ श्रीभूति नामका ब्राह्मण नगरमें बड़ी भारी विडंबना तिरस्कारको प्राप्त करके दीन हुमा अंतमें दीर्घ संसारको प्राप्त हुआ अर्थात् बहुत कालतक संसारमें भ्रमण करता रहा ।।६०४॥
श्रोभूतिको कथाभरतक्षेत्रके सिंहपुर नगरमें सिंहसेन राजा रहता था, उसकी रानीका नाम रामदसा और पुरोहितका नाम श्रीभूति था। श्रीभूति जनेऊमें कैंची बांधकर घुमा