________________
[ २६३
अनुशिष्टि महाधिकार एते दोषा न जाने पर निगरले । तविपक्षा गुणाः सन्ति सुबरा दत्त भोजिनः ।।६०५।। इंद्रराज गृहस्वामि देवतासमर्मिभिः । वितोणं विधिना ग्राह्य रत्नत्रितयवर्धकम् ॥६०६॥
-
-
-
करता और कहता था कि यदि मैं असत्य बोल जाऊँ तो इस कैचोसे अपनी जीभ काट दूगा । इससे उसकी सत्यवादीसे सत्यघोष है ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ । एक दिन एक समुद्रदत्त सेठ उसके पास बहुमूल्य पांच रत्न रखकर कमाने के लिये विदेश गया, कमाकर जहाज में बैठकर आरहा था कि जहाज डब गया, किसी लकड़ीके सहारे सेठ किनारे पहुँचा । वह अपने रत्न लेनेके लिये सत्यघोषके पास गया किन्तु उसने कहा तुम्हारे कोई भो रत्न मेरे पास नहीं है, इसप्रकार कहकर श्रीभूति-सत्यघोषने बिचारेको घरसे निकाल दिया । वह रोता हुआ नगरमें घूमने लगा, वह एक बात कहता जाता था कि इस सत्यघोषने मेरे पांच रत्न लिये हैं, वह प्रतिदिन राजमहलके पासके वृक्षपर बैठकर यही बात कहता । एक समय रानी रामदत्ताने सोचा कि यह पागल नहीं है, रोज एक ही बात करता है, इसकी परीक्षा करनी चाहिये, रामदत्ताने सत्यघोषको जुआमें हराकर उसकी जनेऊ घर में भेजकर चुपकेसे रत्न मंगा लिये। राजाने उनको और रत्नोंमें मिलाकर समुद्रदत्त को दिखाये, उसने अपने हो रत्न लिये उससे राजाको निश्चय हुआ कि यह सत्य कह रहा है । फिर राजाको श्रीभूति पर बड़ा क्रोध आया। उसके लिये तीन थाल गोबर खाना, पहलवानोंके तीन मुक्के खाना या समस्त धन देना ये तीन दण्डोंमेंसे एक दण्ड स्वीकार करने को कहा । वह पापो पहलवानके मुक्के खाते हुए मर गया और नरकमें चला गया ।
कथा समाप्त । दत्तभोजी अर्थात् श्रावक द्वारा दिये हुए भोजनको करनेवाले मुनिके परद्रव्य का त्याग कर देनेसे ऊपर कहे सर्व दोष नहीं होते हैं किन्तु उन दोषोंके विपक्षी जो गुण हैं वे सब प्राप्त होते हैं ।।१०।।
साधुओंको इन्द्र, राजा, गृहस्थ, देवता और साधर्मीजनोंके द्वारा विधिपूर्वक दिया गया एवं रत्नत्रयको वृद्धि करनेवाला ऐसा पदार्थ ही ग्राह्य बताया है ॥९०६।।