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मरणकण्डिका
छेद-बंशस्थविमुचते यः परवित्तमंजसा निरीक्ष्यमाणं सहरा मृदा सदा । अनन्यसाधारणमूतिभूषितः स याति निर्वाणमपास्तकल्मषः ।।६०७।।
इति अचौर्य महावतं । अब्रह्म दशधा त्यक्त्वा रामावैराग्यपंचके । निष्ट सर चाहि लचर्यमनारतम् ॥६०८॥ निरस्तांगांगरागस्य स्ववेहेऽपि विरागिणः ।
जोवे ब्रह्मरिण या चर्या ब्रह्मचर्य तदीयंते ॥१०॥ गद्य-स्त्रीरूपाचभिलाषस्तिमोक्षणवृष्याहार सेवनतत्संसक्तद्रव्यानुरागतद्वारांगनिरीक्षण
सस्कार संस्कारावरतातीतरतस्मरणानागताभिलषणेष्टविषयनिषेवणस्वरूपं देशविधमब्रह्म मंतव्यम् ।।११०॥
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जो पुरुष परके धनको मिट्टी के समान देखता हुआ सदा ही भलीप्रकारसे छोड़ देता है वह अन्यमें नहीं पाये जाने वाली ऐसी विभूतिसे भूषित हुआ तथा पाप जिसका नष्ट हो चुका है ऐसा होकर निर्वाणको जाता है अर्थात् अचौयं व्रतके प्रभावसे मुक्तिको प्राप्त करता है ।।६०७।
इति चौर्य वर्णन समाप्त । अथ ब्रह्मचर्य वर्णन
है क्षपक ! तुम दशप्रकारके अब्रह्मका त्याग करके पांच प्रकारके स्त्री संबंधी वैराग्य में मन को लगाकर सतत् ब्रह्मचर्य व्रतकी रक्षा करो ।।६०८।।
अपने और स्त्रीके शरीरके रागको जिसने नष्ट कर दिया है ऐसे विरागी मुनि के अपने आत्मारूप ब्रह्म में जो चर्या होती है उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं ॥६०६।।
अब दस प्रकारका अब्रह्म गद्यसे बताते हैं-स्त्रीके मनोहर रूप देखनेको अभिलाषा होना यह अब्रह्मका पहला भेद है, बस्तिमोक्षण-लिंगमें विकार होना, वृष्याहार सेवन, गरिष्ठ आहारका सेवन, स्त्रोके द्वारा संसक्त हुए शय्या आदिमें